‘मैं एक मराठी मानुष हूं। मेरे साथ तीन और लोगों का परिवार मेरी टैक्सी से चलता था, जिसे पिछले दिनों दंगाइयों ने तोड़ डाला।
गरीबी और भूख क्या होती है, हमें मालूम है। मराठियों के नाम पर गरीब लोगों को परेशान किए जाने से मेरे जैसे मराठी परेशान और शार्मिंदा हैं।’ यह दर्द भरा बयान रोजी-रोटी की जुगाड़ में जुटे मुंबई के पांडुरंगजी कदम का है।
कदम की जीविका चलाने वाली उनकी टैक्सी को पिछले दिनों दंगाइयों ने तोड़ डाला। कदम के पास एक ही टैक्सी थी, जिसे तीनों भाई बारी-बारी से चलाते थे। पिछले 15 दिनों से ये तीनों भाई बेरोजगार हैं। कदम कहते हैं कि बरसों से हम सब साथ रहते आए हैं।
कोई विवाद नहीं है, लोगों को यह समझना होगा जो काम करेगा वही आगे जाएगा, चाहे मराठी हो या कोई और। दरअसल, मनसे के आंदोलन का सबसे ज्यादा कहर टैक्सियों पर ही टूटा, जिसकी वजह यह है कि मुंबई सहित महाराष्ट्र में चलने वाली ज्यादातर टैक्सियों को उत्तर भारतीय ही चलाते हैं।
मुंबइकर की ईमानदारी की मिसाल बने शेषनारायण दुबे के पास दो टैक्सियां थीं, जिन्हे दंगाइयों ने आग केहवाले कर दिया। इसी दुबे की टैक्सी में एक बार एक आदमी 7.5 लाख रुपये का भरा बैग छोड़ कर चला गया था, पर पैसों को देखकर दुबे की नियत खराब नहीं हुई और उन्होंने पैसों से भरा यह बैग पुलिस के पास जमा करा दिया था।
दुबे की इस ईमानदारी से प्रभावित होकर महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया था। लेकिन उसकी इस ईमानदारी से दंगाइयों को कुछ लेना-देना नहीं था, क्योंकि वह एक उत्तर भारतीय था। दुबे दुखी मन से कहते हैं कि हमारी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है और न ही हम यह शहर छोड़कर जाने वाले हैं।
पिछले 26 साल से हम यहां रह रहे हैं। इस शहर की मिट्टी से हमें प्यार है, हम यहीं रहेंगे चाहे तो हमें भी कोई जला दे। शेषनरायण दुबे और कदम जैसे सैकड़ो लोग मुंबई में शांति बनाए रखने की प्रार्थना कर रहे हैं। साथ ही उन्हें सरकारी मदद का भी इंतजार है, जो अब तक नहीं मिल सका है।
पिछले कुछ महीनों से महाराष्ट्र में जारी उत्तर भारतीय बनाम मराठी मानुष की जंग में सबसे ज्यादा नुकसान टैक्सी और ऑटो वालों को ही हुआ है। महाराष्ट्र में करीब 250 एसटी बसें, 500 टैक्सियां, 100 से ज्यादा ऑटो रिक्शा, 150 बेस्ट बसें, 20 ट्रक और दर्जनों निजी गाड़ियों को क्षति पहुंचाया गया। इनमें से कुछ को तो पूरी तरह से जला दिया गया।
मुंबई की सड़कों पर दौड़ने वाली टैक्सियों में ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जिनका परिवार इसी की कमाई खाते हैं। टैक्सी टूटने से ज्यादा नुकसान गाड़ी के खड़े हो जाने की वजह से है, जिसकी वजह से कई घरों में चूल्हा तक नहीं जल पा रहा है। इन गाड़ियों में से कई गाड़ियां मराठी लोगों की थी।
‘सामना’ के कार्यकारी संपादक संजय राउत कहते हैं कि वर्षों से मुंबई में रहने वाला व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, समुदाय, जाति या राज्य का हो, उसे हम मुंबईकर मानते हैं। इस हिसाब से नुकसान तो मुंबईकर का ही हुआ। फिर यहां सवाल यह उठता है कि हर बार दंगों में सबसे ज्यादा टैक्सी वाले को ही क्यों निशाना बनाया जाता है?
इस पर टैक्सी एवं ऑटो रिक्शा यूनियन के नेता क्वाड्रोस कहते हैं कि मुंबई की सड़कों पर दौड़ने वाली 55 हजार टैक्सियों और लगभग डेढ़ लाख ऑटो रिक्शों में उत्तर भारतीयों की अधिकता है। टैक्सी और ऑटो ही नहीं, बल्कि मुंबई की सड़कों में दौडने वाली हर 10 गाड़ियों में से सात गाड़ियां चलाने वाला उत्तर भारतीय है।
काम करने की ललक और दूसरे लोगों के साथ जल्दी घुल-मिल जाने की कला ने ही इनको इस क्षेत्र में टिका कर रखा है। इसकी वजह सामना (हिंदी) के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ला बताते हैं कि मुंबई में जब कपड़ा मिलें बंद होने लगीं, तो मराठियों ने वडा-पाव का धंधा अपनाया। वहीं उत्तर भारतीयों को टैक्सी चलाना और फुटपाथ पर कपड़े बेचने का काम पसंद आया।
उसके बाद भी जो लोग यहां आए, उनको गाड़ी चलाना सबसे सरल काम लगा। वैसे तोड़-फोड़ और आगजनी से तबाह हुए इस मेहनतकश समुदाय को जल्द ही राहत भी मिल सकती है। क्योंकि टैक्सी यूनियन तोड़ी गई टैक्सियों को बनवाने में कुछ हद तक मदद करने के लिए तैयार है।
हालांकि महाराष्ट्र सरकार ने भी एक कानून बना कर यह प्रावधान किया है कि जो लोग नुकसान करेंगे, उन्हें ही भरपाई भी करनी पड़ेगी। लेकिन तोड़ी गई ज्यादातर टैक्सियां कानून बनने के पहले क्षतिग्रस्त हुई हैं।
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