अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, आशीष गुप्ता, साई अंकित पराशर और कनिका शर्मा द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार वर्ष 2016 में नोटबंदी के बाद शिशु मृत्यु दर कम करने का भारत का प्रयास कमजोर पड़ा है और वर्ष 2017 में शिशु मृत्यु दर बढ़कर 2.9 प्रतिशत तथा वर्ष 2018 में 3.1 प्रतिशत हो गई है। हालांकि वर्ष 2019 में शिशु मृत्यु दर में फिर से गिरावट आई है, लेकिन अध्ययन में चेताया गया कि विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 और देशबंदी के कारण इस साल एक और झटका लगने की आशंका है। इनसे प्रसवपूर्व देखभाल और बच्चे के टीकाकरण जैसी स्वास्थ्य सेवाओं में काफी रुकावट आई है।
वर्ष 2005 और 2016 के बीच कुल शिशु मृत्यु दर की वार्षिक गिरावट दर 4.8 प्रतिशत प्रति वर्ष थी, जबकि वर्ष 1990 से 2005 की अवधि के दौरान यह 2.1 प्रतिशत और वर्ष 1971 और 1990 के बीच प्रति वर्ष 2.6 प्रतिशत थी। अध्ययन (वर्ष 2017 और 2018 के दौरान भारत में शिशु मृत्यु दर स्थिरता और पुनरावृत्ति) के अनुसार एक खुशफहमी यह है कि नवंबर 2016 में नोटबंदी के साथ किया गया भारत का चौंकाने वाला प्रयोग इस असफलता के लिए आंशिक रूप से ही जिम्मेदार है। उस समय 86 प्रतिशत मुद्रा रातोरात बेकार हो गई थी। इस अध्ययन में इस्तेमाल किए गए आंकड़े नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) की संक्षिप्त रिपोर्ट पर आधारित है। अध्ययन के अनुसार छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में कुल शिशु मृत्यु दर बढ़ी है तथा सात अन्य राज्यों में कम से कम एक साल से इसमें स्थिरता आई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि नमूना पंजीकरण प्रणाली में कई सालों से आईएमआर (शिशु मृत्यु दर) में इस प्रकार की गिरावट नहीं देखी गई है। यह सब काफी खतरनाक है, क्योंकि स्वच्छता और एलपीजी तक पहुंच होने जैसे पर्यावरण संबंधी स्वास्थ्य निर्धारकों में तेजी से सुधार के समय ऐसा हुआ है।
अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2005 से 2016 तक भारत ने शिशु मृत्यु दर में तेज गिरावट के लंबे दौर का अनुभव किया था। इस अवधि को तीव्र आर्थिक विकास द्वारा चिह्नित किया गया था। इसमें वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत और वर्ष 2006 के बाद से एकीकृत बाल विकास सेवाओं के क्रमिक सार्वभौमिकरण समेत सामाजिक क्षेत्र की प्रमुख पहल शामिल थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि पिछले 15 सालों के दौरान इस तरह की बाधा नहीं आई है, अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2017 में राज्य स्तर पर शिशु मृत्यु दर में गिरावट का यह उलटफेर मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित था। हालांकि वर्ष 2018 के दौरान कई राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में भी इसी तरह का उलटफेर हुआ।
अलबत्ता विशेषज्ञ इन आंकड़ों की इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि यह एक दीर्घकालिक प्रवृत्ति है और ऐतिहासिक रूप से शिशु मृत्यु दर में पांच या छह साल बाद गिरावट आती है, क्योंकि मृत्यु दर में स्थिरता आ जाती है। गांधीनगर स्थित भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक दिलीप मावलंकर कहते हैं कि यह रेखीय रूप वाली क्रमिक प्रवृत्ति नहीं है। पिछली बार यह वक्र सात से आठ साल पहले समतल हुआ था। खराब फसल वर्ष और जीडीपी में परिवर्तन जैसे कई स्पष्टीकरण दिए जा सकते हैं। नोटबंदी के साथ इसका सहसंबंध परिकल्पना मात्र है। भारतीय बाल चिकित्सा के इन्फैंट यंग चाइल्ड फीडिंग चैप्टर के अध्यक्ष केतन भारदवा का कहना है कि यह प्रवृत्ति कभी समान नहीं रहती है। कई बार तीव्र उतार-चढ़ाव आए हैं। नोटबंदी का असर सभी भौगोलिक क्षेत्रों पर समान रूप से पड़ता। इसके अलावा अधिकांश आबादी को सरकारी क्षेत्र में चिकित्सा सेवा प्राप्त है जो मुफ्त होती है।
