राष्ट्रीय जनसंख्या के आंकड़ों को आधिकारिक रूप से रखने वाले रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (आरजीआई) को कोविड-19 की दूसरी लहर से पैदा हुई मुश्किलों के कारण जनगणना 2021 के लिए डेटा संग्रह करने में देरी हुई है। इसके तात्कालिक अनुमान 2022 में आ सकते हैं लेकिन व्यापक डेटा 2024 से पहले उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। अब अहम सवाल यह है कि महत्त्वपूर्ण आंकड़ों के अभाव में हम भारत की जनसंख्या और जनसांख्यिकी के बारे में क्या जानते हैं और हम नीतियां कैसे तैयार करते हैं?
2019 में आरजीआई के अनुमान, संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के सालाना अद्यतन अनुमान के मुताबिक और आधार डेटाबेस में दिए गए अनुमान जैसे तीन डेटा स्रोतों के अनुसार, देश की आबादी 1.36 अरब और 1.38 अरब के बीच है। आंकड़ों में ज्यादा अंतर नहीं है लेकिन जब हम आयु समूहों और जनसांख्यिकी के आंकड़ों को बारीकी से देखते हैं तो बड़े बदलाव नजर आने लगते हैं। आरजीआई के तहत आने वाले एक विभाग, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम ने राष्ट्रीय आबादी में व्यापक आयु-समूहवार अनुपात की पेशकश की है।
ताजा आंकड़ा 2018 के लिए है। इससे पता चलता है कि सात सालों (2012 से 2018) में कामकाजी उम्र की आबादी की हिस्सेदारी 62.6 फीसदी से बढ़कर 66 फीसदी तक हो गई है। कामकाजी उम्र की आबादी में बच्चों की हिस्सेदारी में कमी आई है। भारत की औसत उम्र 2011 के 25 साल से बढ़कर 2020 में 29 साल हो गई है। इससे पता चलता है कि भारत को पिछले दशक (2011 से 2021 तक) में पहले से ज्यादा नौकरियों की जरूरत थी। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण से अंदाजा मिलता है कि यह जरूरत काफी हद तक पूरी नहीं हुई है।
सभी उम्र के लिए बेरोजगारी की दर 2019-20 में 4.8 प्रतिशत थी जबकि कामकाजी उम्र की आबादी के लिए यह दर 5.2 प्रतिशत थी। हालांकि 15-29 की उम्र वर्ग में यह दर 15 फीसदी अधिक रही। कामकाजी उम्र की आबादी में शामिल होने वाले नए लोगों को पिछले दशक के अनुभवी वयस्कों की तुलना में अधिक बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। विस्तृत जनगणना 2021, जब भी आएगा तभी जनसंख्या में पूर्णकालिक कामगारों और सीमांत (अंशकालिक) कामगारों की हिस्सेदारी का पता चलेगा।
इसके अलावा, हिंदीभाषी राज्यों में बच्चों की आबादी में 25-30 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली है। ऐसा लगता है कि 60 से अधिक उम्र के लोगों की संख्या शहरी और औद्योगीकृत दिल्ली, गुजरात, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में सबसे तेजी से बढ़ी है। इन जनसांख्यिकीय बदलावों के सटीक आंकड़ों के बिना इसका अंदाजा नहीं मिल पाएगा कि राज्यों ने इस दिशा में अपनी नीतियां और सार्वजनिक खर्च तय की हैं या नहीं। केंद्रीय और राज्य बजट खर्च को प्राथमिकता देने में एक बड़ा कारक ग्रामीण और शहरी आबादी का हिस्सा है। केंद्रीय बजट खर्च के लिए अधिक प्रत्यक्ष समर्थन की आवश्यकता होती है जबकि राज्य के बजट खर्च में बड़े निवेश को आकर्षित करने की उम्मीद होती है। उपलब्ध जनसंख्या अनुमानों से पता चलता है कि कुछ राज्यों में शहरीकरण में तेजी आई है।
केरल के 10 निवासियों में लगभग सात अब शहरी हैं और यही बात गोवा पर भी लागू होती है। जनगणना कुछ कारकों के आधार पर एक क्षेत्र को शहरी क्षेत्र के रूप में परिभाषित करता है और इसमें एक प्रमुख कारक यह है कि कृषि गतिविधियों से जुड़ी आबादी का हिस्सा कम हो रहा है। केरल पहले से ही 2011 तक अच्छी तरह से शहरी हो चुका था और 2021 तक शहरीकरण की गति तेज हो गई जिसकी वजह से इसकी विकास की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जनगणना की वजह से नीतियों को बेहतर करने में इन बदले मापदंडों को सीमित करने में मदद मिलती है। सबसे अहम बात यह है कि कोई भी अनुमानों पर निर्भर नहीं रहता है।
