सामुदायिक स्तर पर वैश्विक महामारी कोरोनावायरस के खिलाफ देश की लड़ाई में 10 लाख से भी अधिक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) की सेना ने प्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दिया है। उन्हें कोविड-19 के सुरक्षा नियमों के बारे में जागरूकता पैदा करने, इस वायरस के लक्षणों वाले लोगों की पहचान करने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने, क्वारंटीन वाले मरीजों के यहां दौरा करने तथा और भी काम सौंपा गया है। हालांकि वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत गठित देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का यह महत्त्वपूर्ण हिस्सा अशक्त, कमतर आंका जाने वाला और काम के बोझ तले दबा रहा है तथा आधिकारिक तौर पर इसे केवल स्वयंसेवी केरूप में ही मान्यता प्राप्त है।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अनुसार देश भर में आशा कार्यकर्ता प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने और शौचालय निर्माण को प्रोत्साहन देने से लेकर टीकाकरण और प्रसव के लिए गर्भवती महिलाओं को अस्पताल ले जाने तक 43 कामों की जिम्मेदारी निभाती हैं। इनके कार्यभार में कोविड का काम भी जोड़ दिया गया है। इस सब के लिए उन्हें मासिक वेतन दिया जाता है जो 2,000 रुपये से लेकर 6,000 रुपये तक होता है। इन्हें संस्थागत प्रसव, नसबंदी, टीकाकरण आदि के लिए प्रति मरीज नकद प्रोत्साहन भी दिया जाता है।
नैशनल फेडरेशन ऑफ आशा वर्कर्स (एनएफएडब्ल्यू) के अनुमान के अनुसार इस वैश्विक महामारी के शुरुआती दिनों में कम से कम 30 आशा कार्यकर्ता की कोविड से मृत्यु हो चुकी है। एनएफएडब्ल्यू की विजय लक्ष्मी कहती हैं कि हम सरकार से 18,000 रुपये प्रति माह के अनिवार्य न्यूनतम वेतन के अलावा जोखिम भत्ते के रूप में कम से कम 10,000 रुपये की मांग करते आ रहे हैं जिसका कोई परिणाम नहीं निकला है। इसके बजाय जहां दिल्ली जैसे कुछ राज्यों ने कोविड ड्यूटी के लिए प्रति महीना मात्र 1,000 रुपये दिए हैं, वहीं अन्य राज्यों में आशा कार्यकर्ताओं द्वारा बिना किसी अतिरिक्त प्रोत्साहन के काम किया जा रहा है। जरा इन उदाहरणों पर गौर कीजिए :
महाराष्ट्र में सांगली जिले के शिराला ब्लॉक की आशा सहायिका सुनीता कुंभार कहती हैं कि उनके ब्लॉक में कम से कम 10 आशा कार्यकर्ताओं को जांच में संक्रमित पाया गया है। उन्हें न तो सरकार से कोई थोड़ी-बहुत मदद ही मिली है, बल्कि उन्हें अपने पड़ोसियों द्वारा बहिष्कृत भी कर दिया गया। क्वारंटीन पूरा करने के बाद भी उन पड़ोसियों को इस बात का डर था कि कहीं वे संक्रमण न फैला दें। बेंगलूरु स्थित एक आशा कार्यकर्ता, जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहतीं, का कहना है कि कोविड के दौरान हमारे काम का बोझ दोगुना हो चुका है, लेकिन वेतन में इजाफा नहीं किया गया है।
उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले की एक आशा कार्यकर्ता सीमा देवी कहती हैं कि घर-घर जाकर सर्वेक्षण करने के दौरान मुझे न केवल अदृश्य वायरस के संपर्क में आने का डर रहता है, बल्कि जब वह लोगों से यह पूछती हैं कि क्या उन्होंने हाल ही में जिले से बाहर की यात्रा की है और अगर की है तो क्वारंटीन नियमों का पालन करें, तो उन्हें कई बार अपशब्द भी सुनने पड़ते हैं। बेहतर स्वास्थ्य और अधिकारों के लिए दिल्ली स्थित सेंटर फॉर हेल्थ ऐंड सोशल जस्टिस की परिचालन इकाई और महिला समूह-सेहर कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा झारखंड में आशा कार्यकर्ताओं के हालात पर नजर रखता है। सेहर का नेतृत्व करने वाली संध्या गौतम कहती हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को कई प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वे सभी ऐसी महिलाएं हैं जो आम तौर पर वंचित समुदायों से संबंध रखती हैं और उनके काम को कमतर आंका जाता है तथा कम भुगतान किया जाता है।
वैश्विक महामारी और लॉकडाउन से ये समस्याएं बदतर हो गई हैं। कई राज्यों में आशा कार्यकर्ताओं ने लॉकडाउन के दौरान घटे हुए वेतन की सूचना दी है, क्योंकि इसमें से ज्यादातर हिस्सा टीकाकरण, नसबंदी और संस्थागत प्रसव जैसे कार्यों के प्रदर्शन पर आधारित रहता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य मुहि-जन स्वास्थ्य अभियान की बिहार इकाई का अनुमान है कि टीकाकरण कार्यक्रमों और संस्थागत प्रसवों में कम से कम 50 प्रतिशत की कमी आई है जिसके परिणामस्वरूप आशा कार्यकर्ताओं की आमदनी को नुकसान पहुंचा है।
एनएफएडब्ल्यू का तर्क है कि हालांकि उनसे अग्रिम मोर्च पर रहने की उम्मीद की जाती है, लेकिन आशा कार्यकर्ताओं को कोविड प्रोटोकॉल का बहुत कम प्रशिक्षण और सीमित सुरक्षात्मक साधन मिले हुए हैं, खास तौर पर इस वैश्विक महामारी के शुरुआती महीनों के दौरान। बिहार में मधुबनी जैसे जिलों, जहां प्रवासियों की वापसी की सबसे ज्यादा रेलमपेल नजर आई थी, आशा कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि उन्हें एक जोड़ी के बजाय एक समय में एक ही दस्ताना दिया गया था। संध्या कहती हैं कि इसके अलावा चूंकि उनकी हैसियत केवल स्वयंसेवक वाली है, इसलिए आशा कार्यकर्ताओं के बीमार पडऩे के समय सरकार उन्हें सहारा या मदद देने के लिए नहीं आई है। हम कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उन दो आशा कार्यकर्ताओं के बारे में जानते हैं जो जांच में संक्रमित तो पाई गई हैं, लेकिन उन्हें सरकार से कोई समर्थन नहीं मिला है।
कुंभार का कहना है कि जब कोई आशा कार्यकर्ता अपने ब्लॉक में बीमार पड़ गई, तो उसकी सहकर्मियों ने ही एकजुट होकर उसकेपरिवार की आर्थिक और भावनात्मक रूप से सहायता की। इसके अलावा सरकार ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में ड्यूटी पर मरने वालों के लिए 50 लाख रुपये के जिस सुरक्षा कवच की घोषणा की है, उसका विस्तार करके अस्पताल में भर्ती होने और इलाज के खर्च को दायरे में नहीं लिया जाता है, जिसे ये महिलाएं बहुत मुश्किल से वहन कर पाती हैं। संध्या कहती हैं कि हमने देखा है कि आशा कार्यकर्ताओं को अपनी सुरक्षा का इंतजाम खुद करने के लिए मजबूर किया गया है। एक कार्यकर्ता ने तो अपने एक कमरे वाले घर में परिवार को संक्रमण से बचाने के लिए पशुओं के अहाते में ही सोना शुरू कर दिया था।
उत्तर और मध्य भारत में अब सर्दी होने से आशा कार्यकर्ताओं को नई व्यावहारिक कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि समुदाय में एक दिन के काम के बाद उन्हें अपने कपड़े धोने होते हैं। जन स्वास्थ्य अभियान के बिहार संयोजक और डॉक्टर शकील कहते हैं कि हम ऐसी कई आशा कार्यकर्ताओं के बारे में जानते हैं जो हर रोज अपने ऊनी कपड़े नहीं धो पा रही हैं। अक्टूबर की शुरुआत में जब मध्य प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं ने अपने कामकाजी हालात के विरोध में दो दिन की हड़ताल की थी, तब एक अन्य मसला सामने आया था। अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर भोपाल की एक आशा कार्यकर्ता कहती हैं कि चूंकि हम स्वयंसेवक हैं, इसलिए हमें छुट्टी के दिन का भुगतान नहीं किया जाता है। इस वैश्विक महामारी के दौरान हमें 24&7 काम करने के लिए मजबूर किया गया है, यहां तक कि दीवाली और रविवार को भी।
इस सबके बावजूद इन योद्धाओं ने महामारी के दौरान महत्त्वपूर्ण कार्यों और लक्ष्यों को पूरा किया है। उत्तर प्रदेश की 1,60,000 आशा कार्यकर्ताओं ने राज्य भर में लौटने वाले 30 लाख से अधिक प्रवासियों पर नजर रखीं। दिल्ली की आशा कार्यकर्ताओं ने न केवल घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया है, बल्कि वे होम क्वारंटीन वाले मरीजों के यहां भी गईं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें सही उपचार मिल रहा है। केरल में इस महामारी का प्रसार नियंत्रित करने की सफलता के लिए आंशिक रूप से आशा कार्यकर्ताओं के प्रयासों को श्रेय दिया गया है जिन्होंने संदिग्ध मामलों के बारे में स्वास्थ्य विभाग को तुरंत सतर्क किया है। महाराष्ट्र आशा यूनियन की प्रदेश अध्यक्ष सुमन पुजारी की मांग है कि हमारे काम, वेतन और काम के हालात को नियमित किया जाए। हमारा योगदान कबूल करने का यह सबसे अच्छा तरीका है।
