उत्तर भारत के कुछ राज्यों के किसान कृषि उत्पाद विपणन से जुड़े तीन अध्यादेशों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं जिन्हें सोमवार को विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश किया गया। पहला अध्यादेश कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) के वर्तमान ढांचे को बाधा पहुंचाए बिना मंडियों के बाहर बेचने-खरीदने की इजाजत देता है। दूसरा अध्यादेश, अनुबंध खेती के लिए एक ढांचा प्रदान करता है जबकि तीसरे अध्यादेश में आवश्यक वस्तु अधिनियम में कुछ वस्तुओं को सरकारी नियंत्रण से हटाने का प्रावधान है।
इन अध्यादेशों की घोषणा मई में सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान के रूप में की गई थी। लेकिन अब जब कटाई और बुआई का काम हो चुका है तब किसानों को इस कानून की सूचना मिल रही है। उन्हें इस बात का डर है कि नया कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के साथ ही भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) खरीद की व्यवस्था को भी कम करेगा। ऐसे में विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा में गहरी असुरक्षा बढ़ रही है।
इसके विपरीत, महाराष्ट्र में किसान आशावादी हैं। चार साल पहले, महाराष्ट्र ने फल और सब्जी के किसानों को मंडियों के बाहर अपनी फसल को बेचने की अनुमति दी थी। हालांकि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि ज्यादातर किसानों ने एपीएमसी को बिक्री के प्राथमिक मंच के रूप में जारी रखा। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद जिनकी इन अध्यादेशों को तैयार करने में अहम भूमिका रही है उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि पंजाब और हरियाणा के किसान इन सुधारों को सही तरीके से नहीं समझ रहे हैं। इन बदलावों से न तो एमएसपी खत्म होगा और न ही इससे देश के कृषि क्षेत्र का निगमीकरण होगा जो किसानों के दो सबसे बड़े डर हैं।
रमेश चंद कहते हैं, ‘अध्यादेश में कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है कि इससे कुछ फसलों के लिए मौजूदा एमएसपी आधारित खरीद प्रणाली में कोई बाधा आएगी। मौजूदा सरकार में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को कमजोर करने की किसी भी स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। इसके विपरीत, इस सरकार के शासन में एमएसपी खरीद बढ़ी ही है।’ उन्होंने कहा, ‘बेशक, अगर किसान अच्छे इनपुट के लिए किसी भी तरह का समझौता करना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है लेकिन खेती उन्हें ही करनी होगी। हमने अनुबंध कृषि अध्यादेश में प्रावधान दिया है कि किसानों की जमीन पर किसी भी प्रकार के ढांचे के निर्माण पर रोक है।’
आखिर सभी किसान क्यों नहीं कर रहे हैं विरोध? विनोद सिनम मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के सोनी गांव के एक अधेड़ उम्र के किसान हैं। एक साल में वह आमतौर पर कम से तीन फसलों की खेती करते हैं। सर्दियों में गेहूं, गर्मियों में सोयाबीन और दो सीजन के बीच लहसुन की फसल उगाते हैं। सिनम के लिए वह अपनी फसल के लिए जो कीमत हासिल करते हैं वह सबसे महत्वपूर्ण है चाहे वह इसे पास की मंडी में बेचते हों या खरीदार सीधे उनके खेत में आते हों।
सिनम ने टेलीफोन पर बताया ‘अप्रैल में लॉकडाउन की वजह से जब मंडी केवल छिटपुट तरीके से खोली गई तब व्यापारी हमारे घर ताजा कटा लहसुन खरीदने के लिए आए थे। कई बार मंडियों में मिलने वाली कीमत से ज्यादा रकम भी मिली। लेकिन लेनदेन में हमें जिस दर की उम्मीद थी वह उसके अनुरूप नहीं थी।’ उन्होंने कहा कि अगर उन्हें मंडी समिति द्वारा तय किए गए दाम के बराबर रकम मिल जाती है तब सीधे व्यापारियों को बेचने में कोई बुराई नहीं है वैसे मंडियां सबसे बेहतर उपलब्ध विकल्प हैं।
मंदसौर के विनोद सिनम जैसे लाखों किसानों के लिए मुख्य पैमाना उनकी फसल के लिए मिलने वाली कीमत है। हरियाणा और पंजाब के किसानों में दूसरी तरह की आशंका। एक बार विनियमित बाजारों या मंडियों के बाहर खरीद शुरू होने लगेगी तब केंद्र और उसकी एजेंसियां मसलन एफसीआई धीरे-धीरे इन राज्यों से अपनी वार्षिक गेहूं और चावल की खरीद बंद कर देगी और ऐसे में इन किसानों को व्यापारियों के रहमोकरम पर जीना पड़ेगा।
पंजाब और हरियाणा केंद्र की वार्षिक गेहूं और चावल खरीद में एक बड़ा योगदान देते हैं जिसे देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से वितरित किया जाता है। भारत कृषक समाज के अध्यक्ष अजय वीर जाखड़ ने बताया, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा जैसे केंद्र सरकार के भ्रामक बयान की वजह से कृषि अध्यादेशों को लेकर पंजाब और हरियाणा के किसानों की आशंकाएं बढ़ी हैं। वे मानते हैं कि 2020 के पंजाब चुनाव के बाद धान और गेहूं की असीमित खरीद खत्म हो जाएगी।’
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) ने सोमवार 14 सितंबर को इन अध्यादेशों के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई। उनका विरोध करों को लेकर भी है। ये मुद्दे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए भी अहम है और इन अध्यादेशों का इस्तेमाल करते हुए विपक्षी अकाली दल (बादल) को घेरने की कोशिश हो सकती है। पंजाब में अकाली दल के लिए और हरियाणा में भाजपा के नए सहयोगी दल दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के लिए अध्यादेश का विरोध करना मुश्किल भरा हो सकता है क्योंकि ये दल सरकार का हिस्सा हैं। लेकिन इन अध्यादेशों का खुलेआम समर्थन करने से भी उनके मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और किसानों के वोट बैंक प्रभावित हो सकते हैं।
दोनों राज्यों को यह भी डर है कि अगर कृषि व्यापार का एक बड़ा हिस्सा मंडियों के बाहर जाता है तब उन्हें अपने वार्षिक राजस्व का बड़ा हिस्सा खोना पड़ेगा। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी ताजा रबी रिपोर्ट में कहा कि 2019-20 में पंजाब और हरियाणा में गेहूं पर लगाए गए वैधानिक कर (मंडी कर/एपीएमसी उपकर + आढ़तिया कमीशन) 5.5 प्रतिशत से 4.5 प्रतिशत के दायरे में थे। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ये कर मात्र ढाई प्रतिशत और 2 प्रतिशत हैं।
ये कर तब और बढ़ जाते हैं जब ग्रामीण विकास और बुनियादी ढांचा विकास उपकर, समाज के लिए कमीशन, निराश्रित शुल्क (बेसहारा शुल्क) और मोपारी शुल्क राज्यों द्वारा लगाया जाता है। हालांकि केंद्र ने जोर देकर कहा कि तीनों अध्यादेश किसानों को एक वैकल्पिक मार्केटिंग चैनल प्रदान करते हैं लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसान आश्वस्त नहीं हैं। हालांकि राजनीतिक दल उन्हें अपनी आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं क्योंकि इन सुधारों में राजस्व घाटा दिख रहा है।
