मार्च के आखिर तक आशिष कुमार फेरेरो रोचर प्रालीन चॉकलेट के लिए प्लास्टिक के डिब्बे और दुग्ध युक्त मीठी क्रीम निकालने के लिए किंडर जॉय के अंदर लगी प्लास्टिक की चम्मच बनाने में मदद कर रहे थे। प्लास्टिक मोल्ड प्रौद्योगिकी में डिप्लोमा के साथ इस 20 वर्षीय युवक ने अपने पसंद के करियर की सीढ़ी पर पांव बढ़ाया था। उनके छोटे भाई आदित्य ने कानून को चुना था, लेकिन आशिष ने अपने निगाह प्लास्टिक पर जमाई हुई थी। उन्होंने कहा कि मैं अपना खुद का व्यवसाय शुरू करना चाहता हूं। उन्होंने बताया कि वह किस तरह अपने कारखाने में रोजमर्रा के उत्पादों को बनाने के लिए प्लास्टिक की रीसाइक्लिंग करना चाहते हैं। भारत के कोरोनावायरस के लॉकडाउन ने उनकी इन योजनाओं को अस्त-व्यस्त कर दिया है। शिक्षित, लेकिन बेरोजगार आशिष कुमार दुनिया भर के उन बेहिसाब लोगों में से एक हैं, जिनके सामाजिक विकास को इस नए कोरोनावायरस ने बाधित करदिया है। इसने अकेले भारत में ही 20 लाख से अधिक लोगों को संक्रमित कर दिया है और अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया है। इसके साथ ही लाखों लोगों की आकांक्षाएं भी लुप्त होती जा रही हैं।
कुछ वर्षों से ग्रामीण भारत में लोग समृद्ध हो रहे हैं और उस स्तर की ओर बढ़ रहे हैं जिसे अर्थशास्त्री उपभोक्ताओं का उभरता हुआ मध्य वर्ग कहते हैं। यह वर्ग दुनिया के इस दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में आर्थिक विकास की योजना का केंद्र बना हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार इस विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था में इस वर्ष 4.5 प्रतिशत तक गिरावट का अनुमान है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक कम से कम 40 करोड़ भारतीय श्रमिकों के गरीबी की गर्त में जाने का खतरा है।
कुमार उन तकरीबन 1,31,000 लोगों में से एक हैं, जिनके बारे में स्थानीय अधिकारियों का अनुमान है कि वे देश भर के कार्य स्थलों से गोंडा लौट आए हैं। यह उत्तर प्रदेश का वह जिला है जो कुमार ने पिछली जून को छोड़ा था। देश भर में करीब एक करोड़ लोगों ने उन गांवों में लौटने के लिए लंबी कष्टकारी यात्राएं की हैं, जहां से वे गए थे। कुछ लोग वापस शहरों में चले गए हैं, लेकिन इनमें से कई लोग जो पहले पैसा भेजा करते थे, अब भी ग्रामीण इलाकों में फंसे हुए हैं। पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र के बारामती के एक कारखाने में काम करने वाले कुमार हर महीने 13,000 रुपये कमा रहे थे, जो उनके पिता के वेतन के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा था। वह उत्तर प्रदेश में कुमार के मूल गांव के निकट एक अनाज बाजार में नौकरी करते थे। अपने वेतन में से यह युवक हर महीने लगभग 9,000 रुपये घर भेज रहा था जिसमें से अधिकांश हिस्से से उनके छोटे भाई की पढ़ाई में मदद मिल रही थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। कभी अपने परिवार को पैसा भेजने वाला यह युवक अब एक आर्थिक बोझ बन गया है।
विश्व बैंक के अनुसार उत्तर प्रदेश की करीब 20 करोड़ से अधिक आबादी में से लगभग छह करोड़ आबादी गरीबी में रहती है। कुमार ने कहा कि उन्होंने पश्चिमी राज्य गुजरात और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में प्लास्टिक कारखानों में कई नौकरियों के लिए आवेदन किया है, लेकिन उन्हें काम नहीं मिला है।
कुमार के 47 वर्षीय पिता अशोक उन दिनों को याद करते हैें जब परिवार के पास न तो पर्याप्त भोजन था और न ही ढंग के कपड़े। अशोक ने हाई स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं की थी। उन्होंने कहा, मैंने सोचा था कि बच्चों को हमारी लीक पर नहीं चलना चाहिए। उन्हें आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
कुमार जिनका कहना है कि उन्होंने कभी फेरेरो रोचर प्रालीन का स्वाद नहीं चखा है, ने पिछले साल जून के दौरान गुजरात में अपना डिप्लोमा पूरा किया और घर से 1,500 किलोमीटर दूर इटली के स्वामित्व वाले कारखाने में तकनीशियन के रूप में काम शुरू करने के लिए ट्रेन पकड़ ली।
जिस कारखाने ने उन्हें नौकरी दी वह ड्रीम प्लास्ट इंडिया द्वारा संचालित किया जाता है। यह इटली की प्लास्टिक विनिर्माता ग्रुप्पो सुनिनो स्पा की एक सहायक कंपनी है जिसके दुनिया भर में 10 संयंत्र हैं। कुमार ने कहा कि यह कारखाना बहुत अच्छा था। उनके अनुबंध में कंपनी की ओर से सेवानिवृत्त कोष में मासिक योगदान और बोनस शामिल था। कर्मचारियों को हर रोज एक बार का भोजन दिया जाता था, पर्यवेक्षक दोस्ताना व्यवहार वाले थे और वेतन समय पर आता था। पिछले एक साल के दौरान उनकी आय से उनके माता-पिता को चार-कमरे वाला पक्का मकान बनाने में मदद मिली। इससे उनके भाई को बहराइच के लॉ स्कूल जाने के लिए फीस भुगतान में भी मदद मिली।
