जब रोहित कुमार (बदला हुआ नाम) के बड़े भाई को जून में कोरोनावायरस संक्रमण से जुड़ी दिक्कतों की वजह से दिल्ली के एक प्राइवेट अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था, तब उन्हें लगा था कि अस्पताल में बेड मिलने से समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन उनकी मुसीबतों की बस शुरुआत ही हुई थी। बड़े भाई की हालत नाजुक थी और उन्हें टोसिलिजुमाब दवा की जरूरत थी। अस्पताल में यह दवा उपलब्ध नहीं थी तो कुमार को इसका इंतजाम करने को कहा गया। उन्होंने बताया, ‘मैंने उस दिन सुबह 9 बजे से रात 11 बजे के बीच लगभग 60 कॉल कीं ताकि मुझे टोसिलिजुमाब का एक पैक मिले जिसमें चार पहले से ही भरी सीरिंज रहती है। इसका अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) 45,000 रुपये था लेकिन मुझे 54,000 रुपये का भुगतान करना पड़ा और मुझे इतनी कीमत चुकाकर भी ऐसा लग रहा था कि मैंने अच्छा सौदा किया है।’ वह कहते हैं कि एक विक्रेता ने तो इस दवा के लिए 92,000 रुपये की कीमत लगाई थी।
कोविड-19 के इलाज में काम आने वाली अपेक्षाकृत ज्यादा कीमत वाली दवाएं टोसिलिजुमाब और रेमडेसिविर की कालाबाजारी हो रही है और कुछ एजेंट और वितरक गलत तरीके से इन दवाइयों के जरिये काफी मुनाफा कमा रहे हैं। कुछ मामलों में तो इन दवाइयों के विक्रेताओं द्वारा मांगी गई कीमतें बाजार मूल्य से छह गुना ज्यादा होती हैं। रेमडेसिविर को सिप्ला और हेटेरो द्वारा सिप्रेमी और कोविफॉर ब्रांड के तहत बेचा जाता है। सिप्ला ने इंजेक्शन वाली दवा की कीमत 4,000 रुपये प्रति शीशी लगाई है जबकि हेटेरो ने इसकी कीमत 5,400 रुपये तय की है।
कीमतों में लगभग 6-7 गुना वृद्धि की शिकायतों के बाद सरकार ने सक्रियता दिखानी शुरू की। विनिर्माताओं के साथ बैठक करने के अलावा उन्हें जल्द ही आपूर्ति बढ़ाने के लिए कहा गया है। फार्मास्यूटिकल्स विभाग (डीओपी) ने भी मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कहा है कि इस तरह के कदाचार पर जरूरी होने पर कार्रवाई की जाए। दरअसल, सरकारी सूत्रों ने संकेत दिया कि सिप्ला मांग को पूरा करने के लिए अधिक मात्रा में टोसिलिजुमाब आयात करने की कोशिश कर रही है। टोसिलिजुमाब को एक्टेमरा ब्रांड के तहत बेचा जाता है जिसे फिलहाल अमेरिका और जापान में बनाया जाता है। सिप्ला भारत में इस दवा की बिक्री करता है।
इस बीच कंपनियां भी यह सुनिश्चित करने के लिए कमर कस रही हैं कि वितरण में इस तरह की गड़बडिय़ों पर रोक लगाई जाए। सिप्ला और हेटेरो का हेल्पलाइन है जिसके माध्यम से वे इन उत्पादों की उपलब्धता, कीमतों आदि के बारे में जानकारी साझा कर रही हैं।
सिप्ला के एक प्रवक्ता ने कहा कि वे नियामक प्राधिकरणों के साथ मिलकर काम कर रहे थे ताकि इसकी आपूर्ति केवल अस्पताल चैनलों और विशेष रूप से जहां कोविड-19 के ज्यादा गंभीर मामले हैं वहीं तक सीमित रखा जा सके। उनका कहना था, ‘नियामकीय दिशानिर्देशों के मुताबिक, इन अस्पतालों की एक राज्यवार सूची हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध है।’ सिप्ला की हेल्पलाइन न केवल रेमडेसिविर के लिए है बल्कि उन अन्य दूसरी दवाओं के लिए भी मददगार है जिनका इस्तेमाल कोविड-19 के इलाज के लिए जरूरी है। हाल ही में एक ट्वीट में कंपनी ने कहा था कि उसने हाल के हफ्तों में रेमडेसिविर और टोसिलिजुमाब जैसी दवाओं की अभूतपूर्व मांग देखी है। इसमें कहा गया है कि इसने पहले ही अपनी आपूर्ति को बढ़ा दिया है और अगले कुछ हफ्तों में मांग-आपूर्ति की स्थिति सामान्य होने की उम्मीद है ।
हेटेरो के प्रवक्ता ने भी संकेत दिया कि उन्होंने कंपनी की मार्केटिंग और वितरण इकाई की वेबसाइट हेटेरो हेल्थकेयर पर अपडेट साझा करना शुरू कर दिया है। प्रवक्ता ने कहा, ‘इसमें भेजे गए बैचों की संख्या और कितनी शीशियों की आपूर्ति होगी इसका विवरण है। इसमें हेल्पलाइन और ईमेल का ब्योरा भी है जिसकी मदद से अस्पताल, मरीज, वितरक जुड़ सकते हैं।’
वास्तव में, कंपनियां इस संकट से इतनी चिंतित हैं कि माइलैन जिसे अभी भारत में अपना रेमडेसिविर ब्रांड लॉन्च करना है वह कालाबाजारी रोकने के लिए लॉन्च करने से पहले रोक की व्यवस्था बनाने के लिए काम कर रही है। भारत और उभरते बाजारों में माइलैन के अध्यक्ष राकेश बामजई ने कहा कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए सख्त उपाय कर रहे हैं कि जरूरतमंद मरीजों तक इन दवाओं की पहुंच हो।
कोविड-19 के इलाज के लिए बायोकॉन को अपनी दवा आईटोलिजुमाब बेचने के लिए नियामक से मंजूरी मिल गई है। कंपनी ने कहा कि यह दवा एक सीमित चैनल के माध्यम से बेची जाएगी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दवा की कोई कालाबाजारी नहीं हो रही है। बायोकॉन की कार्यकारी अध्यक्ष किरण मजूमदार शॉ ने कहा, ‘यह एक रोगी विशिष्ट दवा होने जा रही है जहां हमें रोगी की सहमति और डॉक्टर के हस्ताक्षर होने चाहिए कि इस दवा की जरूरत है। अगर हमें कालाबाजारी के बारे में पता चलता है तब हम कड़ी कार्रवाई करेंगे।’ भारत में 2013 में बायोकॉन द्वारा तैयार की गई और लॉन्च की गई दवा अल्जुमाब ब्रांड के तहत आती है और इसका इस्तेमाल हल्के-गंभीर प्लेक सोरायसिस के इलाज के लिए किया जाता है जिसकी कीमत 8,000 रुपये प्रति शीशी है।
रेमडेसिविर जैसी दवाएं दवा की खुदरा दुकानों के माध्यम से नहीं बेची जाती हैं। इनका इस्तेमाल अस्पताल में भर्ती मरीजों पर किया जाता है और इसकी बिक्री भी अस्पताल के माध्यम से की जाती है। अस्पताल सीधे कंपनियों से संपर्क कर सकते हैं या अधिकृत वितरकों के माध्यम से खरीद सकते हैं।
कुछ कंपनियां अब प्रमुख शहरों में अपना वितरण केंद्र शुरू करने पर विचार कर रही हैं जहां उन मरीजों का मार्गदर्शन किया जा सकता है जिनके पास वैध दस्तावेज हैं। मरीज दवाओं को सही कीमत पर पाने के लिए डॉक्टर की पर्ची, कोविड-19 की पॉजिटिव रिपोर्ट और आधार कार्ड ले जा सकते हैं।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि डॉक्टरों, अस्पतालों की दवा दुकानें और वितरकों का गठजोड़ है जिससे मुनाफाखोरी बढ़ी।’ उन्होंने कहा कि सरकारी एजेंसियों ने पहले ही ऐसी शिकायतों पर नकेल कसनी शुरू कर दी है। भारतीय औषधि महानियंत्रक, नैशनल फार्मास्युटिकलप्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) के अध्यक्ष और फार्मास्यूटिकल्स विभाग के अधिकारियों ने हाल ही में इस मुद्दे पर चर्चा के लिए बैठक की है।
ऑल इंडियन ओरिजिन केमिस्ट ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स के अध्यक्ष जगन्नाथ शिंदे ने कहा कि उन्होंने कंपनियों और सरकार से भी अनुरोध किया है कि वे कुछ प्रतिष्ठित दवा विक्रेताओं के माध्यम से भी वितरण की अनुमति दें ताकि मरीजों तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जा सके। अभी एक डॉक्टर द्वारा इसे निर्धारित करने के बाद रोगियों के बीच बहुत घबराहट होती है। शिंदे सिप्ला के स्टॉकिस्ट है और खुद दवाओं को बेच रहे हैं। उनका कहना है, ‘फिलहाल डॉक्टर अगर पर्ची पर इस दवा का जिक्र कर देता है तो लोगों में घबराहट बढ़ जाती है। ऐसे में उन्हें दवा के इंतजाम के लिए पूरी मशक्कत करनी पड़ जाती है।’
मुंबई के सरकारी अस्पतालों ने कहा कि उनके पास अब पर्याप्त स्टॉक है क्योंकि सरकार ने दवाओं की खरीद कर उनकी आपूर्ति कर दी है। केईएम अस्पताल के पूर्व डीन डॉ अविनाश सुपे ने महसूस किया कि मामूली रूप से बीमार मरीजों को रेमडेसिविर दवा दी जानी चाहिए जिनमें सांस फूलने आदि के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। उनका कहना है, ‘लगभग 15-20 प्रतिशत मरीजों को इसकी जरूरत होगी। इसलिए, अगर भारत में अब लगभग कोरोनावायरस के 3 लाख सक्रिय मामले हैं तो इनमें से भले ही केवल 10 प्रतिशत को रेमडेसिविर दिया जाएगा तो लगभग 30,000 मरीजों (या 18 लाख शीशियों) को इसकी आवश्यकता होगी।’ उन्होंने कहा कि फिलहाल आपूर्ति अभी ज्यादा नहीं है।
प्राइवेट अस्पताल भी मांग-आपूर्ति में काफी अंतर की समस्या उठा रहे हैं। वाशी में हीरानंदनी हॉस्पिटल के फैसिलिटी डायरेक्टर संदीप गुदुरू बताते हैं, ‘एक स्थिर आपूर्ति शृंखला उपलब्ध है। लेकिन, शत प्रतिशत मांग अभी तक पूरी नहीं हो पा रही है। हालांकि धीरे-धीरे हमें आपूर्ति में लगातार सुधार देखने को मिल रहा है।’
