चार साल पहले जब पीतल और उसे बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की कीमतें आसमान छू रही थीं, तब भी शहर का पीतल उद्योग बहुत बुरी स्थिति में था।
लेकिन पिछले तीन महीने से जारी आर्थिक मंदी से पीतल उद्योग दम तोड़ रहा है। यह सुनकर आप चौंक गए क्या? तो चलिए शहर के एक पीतल कारीगर अशफाक अली की जुबान से ही सच्चाई सुनते हैं-‘पिछले दो-तीन महीने में पीतल और एल्युमिनियम जैसे धातुओं की कीमत में भारी गिरावट हुई है।
हम लोगों ने पीतल 250 रुपये प्रति किलोग्राम खरीदा था। लेकिन अंतिम उत्पाद बनाने के बाद जब इसे निर्यातकों को बेचना था, तो इसकी कीमतों में काफी गिरावट होने लगी। इसकी कीमत पहले 200 रुपये प्रति किलो और बाद में 160 रुपये प्रति किलोग्राम के स्तर तक पहुंच गई।
विदेशी ग्राहकों ने ज्यादा कीमत होने की वजह से ऑर्डर रद्द करवाने शुरू कर दिए। लेकिन हम लोगों ने घाटा सहकर माल बेचना शुरू कर दिया।’ नवाबपुरा और जामा मस्जिद के इलाके पुराने शहर में पड़ते हैं, लेकिन वैश्वीकरण के कारण यहां की वर्कशॉप ने भी लगता है लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) में अपना स्थायी ठिकाना ढूंढ लिया है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के चलते जब जब एलएमई में कीमतें गिरती हैं, तो अमेरिका और ब्रिटेन में बैठे ग्राहक वायदा सौदों के जरिये माउस के एक क्लिक पर मौजूदा भाव तय करते हैं। वैश्वीकरण का मतलब शायद यही है कि नवाबपुरा के हाजी मतलूफ फैक्ट्री की चिमनियों से भी धुआं नहीं उठेगा। इस छोटे व्यापारी की फैक्ट्री में पीतल की छड़ें या सिल्लियां बनती हैं।
इन छड़ों से बाद में विभिन्न तरह की पीतल की चीजें बनाई जाती है। वे कहते हैं, ‘पिछले दो महीने में हमें 10 लाख का घाटा हुआ है। मैंने फैक्ट्री बंद कर दी।’ मतलूफ के साथ ही मुन्नालाल और नरेश कुमार जैसे दूसरे लोग भी अपनी पीड़ा सुनाने लगते हैं और बंदी और घाटे की इसी तरह का दुखड़ा बयान करने लगते हैं।
एडम स्मिथ का सिद्धांत कहता है कि 19 लोग मिल जाएं, तो वे खूंटी गाड़ सकते हैं। करीब एक फुट का पीतल का लैंप बनाने के लिए 10 से 14 लोगों की जरूरत होती है। हर दस्तकार सिर्फ एक काम करता है और वह उसी में माहिर होता है। कटाई, चिकना बनाने और तराशने के लिए अलग अलग लोग होते हैं। बाहर और भीतर के खांचे बनाने के लिए भी अलग कारीगर होते हैं।
ब्रास आर्टिसन सोसाइटी के अध्यक्ष एस. गनीम कहते हैं,’चार साल पहले कारीगरों को रोजाना 250 से 400 रुपये मिलते थे। तीन चार महीने पहले तक भी 100 रुपये ठीक-ठाक मजदूरी मिल जाती थी। पर अब उन्हें 60 से 70 रुपये ही मिलते हैं।’ एक अनुमान के मुताबिक इस बेहद असंगठित उद्योग में लगभग 2 लाख दस्तकार काम करते हैं।
एएनएस इंटरनेशनल के मोहम्मद आजम उस समय सुर्खियों में आए, जब उनके भाई ने 1996 के विश्व कप क्रिकेट के लिए ट्रॉफियां बनाई। अब भी फैक्ट्री में दाखिल होने पर हथौड़ियों की आवाज सुनी जा सकती है, लेकिन उसी बर्तन को बनाने के काम में महज 15 लोग लगे हैं। आजम कहते हैं, ‘मैंने 80 लोगों को निकाल दिया है, क्योंकि अभी मैं 30 फीसदी क्षमता से ही उत्पादन कर रहा हूं।