मंदी की मार अध्यात्म और सिल्क की नगरी वाराणसी पर भी खूब पड़ी है।
एक दशक के उथल-पुथल के बाद जब वाराणसी का सिल्क उद्योग पटरी पर आता दिखाई दे रहा था, तभी मंदी और आर्थिक संकट का रोड़ा राह रोक खड़ा हो गया है।
संकरी गलियां, मंदिर, पंडे और सिल्क की साड़ियां इस प्राचीन शहर की पहचान हैं। फेबिको के मालिक और पूर्वी उत्तर प्रदेश निर्यातक संघ के अध्यक्ष मुकेश अग्रवाल का कहना है कि आर्थिक संकट की मार सिल्क कारोबारियों पर भी पड़ रही है।
उन्होंने बताया कि अमेरिका में उनका एक क्लाइंट है, जिनसे हर बार 60-80 लाख रुपये का ऑर्डर मिलता था, लेकिन सितंबर से अब तक एक भी ऑर्डर नहीं मिला है, जबकि यह कारोबार का पीक सीजन है।
प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित कचौड़ी गली के बनारस साड़ी फैक्टरी के शिवकुमार कहते हैं कि बाहर के ऑर्डर तो छोड़ दें,, पिछले 15 दिनों से घरेलू बाजारों से भी आशानुरूप ऑर्डर नहीं मिल रहा है। उन्होंने बताया कि उनकी कंपनी आंध्र प्रदेश में भी बनारसी साड़ियां भेजती हैं, जहां शादियों के मौसम में इसकी खूब मांग होती है, लेकिन इस बार ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
खास बात यह कि अब ग्राहक कम कीमत वाली साड़ियां खरीदने पर जोर दे रहे हैं। पहले जहां 4000-5000 रुपये तक कीमत वाली साड़ियां खूब बिकती थीं, वहीं अब ग्राहक 2000 रुपये वाली साड़ियों की मांग करते हैं। बनारस वीवर वेलफेयर एसोसिएशन के चेयरमैन अमरेश कुशवाहा ने बताया कि देश का आर्थिक विकास और मंदी का सीधा असर सिल्क साड़ियों के बाजार पर पड़ता है।
उन्होंने बताया कि कुछ माह पहले तक लोगों के पास काफी पैसा था और महंगी साड़ियां भी खरीदने को तैयार रहते थे। इससे बाजार में काफी तेजी आई और हमने कारीगरों की संख्या भी बढ़ा दी, साथ ही उनके वेतन में भी इजाफा कर दिया। यही नहीं, अच्छे कारोबार की उम्मीद में हमने रामनगर (सिल्क हब) में ऑफिस ले लिया।
लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है और मांग काफी कम हो गई है और घाटा उठाना पड़ रहा है। साल के शुरुआत में जिस तरह की मांग थी, उसे देखते हुए लगता था कि साल भर अच्छा कारोबार होगा, लेकिन वैश्विक मंदी से सिल्क कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। शादी और क्रिसमस जैसे पीक सीजन में भी ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं।
कुशवाहा ने बताया कि पिछले दशक में परंपरागत हैंडलूम को पावरलूम ने कड़ी चुनौती दी, जिससे भी कारोबार पर असर पड़ा। वहीं सूरत में सिंथेटिक मैटीरियल से साड़ी बनाई जाने लगी, जो काफी सस्ती पड़ती है। हैंडलूम में जहां एक साड़ी पर 500 रुपये की मजदूरी देनी पड़ती है, वहीं पावरलूम में यह खर्च मात्र 100 रुपये आता है। अगर हम इसे 1200 रुपये में बेचते हैं, तो केवल 10 फीसदी का मुनाफा होता है, जबकि पावरलूम में बनी साड़ियां 900 रुपये में बिकने के बाद भी 20 फीसदी मुनाफा देती हैं।
बनारस का सिल्क उद्योग इस समस्या से जूझ ही रहा था कि आर्थिक संकट के रूप में दूसरी समस्या आ गई। अग्रवाल ने बताया कि बनारस से करीब 500 करोड़ रुपये सालाना का निर्यात होता था, लेकिन अब सभी निर्यातकों का आंकड़ा 30 से 40 फीसदी घट गया है।
फीकी पड़ रही साड़ियों की चमक
मंदी में नहीं मिल रहे खरीदार
ग्राहक कर रहे सस्ती साड़ियों की मांग
पावरलूम भी दे रहा हथकरघा को कड़ी चुनौती