बिहार में चुनाव का मतलब कुछ साल पहले तक हिंसा का दौर हुआ करता था। इतिहास इस बात का गवाह है।
1977 से 2005 के बीच बिहार में जितने भी आम चुनाव और विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें अच्छी-खासी तादाद में लोगों को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी है। इसलिए तो कई लोग मतदान के लिए जाते ही नहीं थे। लेकिन इस बार फिजा कुछ बदली-बदली सी है।
ऐसा पहली बार हुआ है, जब चुनाव प्रचार में बिहार से एक भी शख्स की मौत की खबर नहीं आई है। यह अपने आप में एक बड़ी बात है। साथ ही, बूथ लूटने और फर्जी मतदान की खबरें भी न के बराबर सुनने को मिली हैं।
बदली सी बयार
इस बार के आम चुनाव बिहार में ऐतिहासिक ही कहे जाएंगे। कई लोगों की नजरों में नक्सली हिंसा को छोड़ दें, तो चुनावी हिंसा में एक भी शख्स की मौत न होना एक बड़ी बात है। इतिहास को देखते हुए उनकी बात सही भी है। 1978 में हुए पंचायत चुनाव में 500 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 1990 में हुए विधानसभा चुनाव में 84 लोगों की मौत हुई थी।
1999 और 2004 के आम चुनावों में क्रमश: 74 और 20 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। दूसरी तरफ, 2001 के पंचायत चुनावों में 158 लोगों की जान गई थी। वहीं, 2005 के विधानसभा चुनाव में 22 लोगों की मौत हुई थी। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस बार चुनाव में हिंसा न के बराबर होने का ज्यादातर श्रेय जाता है, के.जे. राव को।
राव ने 2005 में जिस कुशलता के साथ विधानसभा चुनाव करवाए थे, उसकी वजह से अपराधियों की कमर टूट गई। औरंगाबाद से कांग्रेस के निवर्तमान सांसद निखिल कुमार का कहना है, ‘हर चीज की एक इंतहा होती है। बिहार की जनता हिंसा से बुरी तरह से ऊब चुकी है। अब उन्हें शांति चाहिए। इस बात ने चुनावी हिंसा कम होने में एक बड़ी भूमिका निभाई है।’
क्या हैं कारण?
राजनीतिक दलों से इस बारे में पूछें तो वे अपने-अपने गठबंधन को इस बात का श्रेय देने से नहीं चूकते। मिसाल के तौर भाजपा के बक्सर से निवर्तमान सांसद लाल मुनि चौबे कहते हैं, ‘ये मुमकिन हो पाया है राज्य की भाजपा-जद (यू) सरकार के कुशल प्रशासन की वजह से। सरकार के कदमों के कारण राज्य में शांति का माहौल कायम हो पाया है। आज अपराधी पुलिस से डरते हैं। इसलिए तो वे चुनाव प्रक्रिया में किसी तरह का कोई खलल नहीं डाल पाए।’
दूसरी तरफ, निखिल कुमार कहते हैं, ‘केंद्र सरकार ने बिहार के विकास में काफी पैसा लगाया है। केंद्र सरकार की योजनाओं की वजह से ही आज राज्य में तेजी से सड़कें बन रही हैं। इसकी देखादेखी नीतीश कुमार की सरकार ने भी योजनाओं की शुरुआत की। लेकिन आज जहां केंद्र सरकार की योजनाएं तेजी से आगे बढ रही हैं, तो वहीं राज्य सरकार की योजनाओं पर रेंग-रेंग कर काम हो रहा है।
साथ ही, हमने बिजली क्षेत्र में भी राज्य में काफी काम किया है। राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत आज बिहार के हरेक इलाके में बिजली पहुंचाई जा रही है। अकेले मेरे इलाके में इस काम के लिए 180 करोड़ रुपये की राशि मिली है, जिसके तहत खंभे लगाए जा रहे हैं, तारें बिछाई जा रही हैं और चार नए सब स्टेशनों का निर्माण किया गया है। हमने रोजगार के लिए भी नरेगा और कई योजनाओं की शुरुआत की है। इस वजह से विकास हुआ है और लोग हिंसा से विमुख हुए हैं।’
हालांकि, विश्लेषकों की राय इससे इतर है। उनके मुताबिक इस बार राजनीतिक दलों को अपने चुनाव प्रचार के तरीकों में फेर-बदल करना पड़ा। मार्च में चुनाव की तारीखों की घोषणा किए जाने की वजह से उन्हें ‘पूरी तैयारी’ करने का वक्त भी नहीं मिला। विश्लेषकों के मुताबिक सबसे बड़ी बात यह है कि आज सूबे में माहौल विकास का है। हिंसा से लोग आजिज आ चुके हैं।
वे अब शांति से अपनी जिंदगी बिताना चाहते हैं। वे विकास चाहते हैं। इसी वजह से तो विकास बिहार में इस चुनाव में (शुरुआत में ही सही) एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। पटना के रमेश रंजन कहते हैं, ‘मेरे लिए सबसे बड़ा मुद्दा जाति नहीं, बल्कि विकास बन चुका है। मेरी जाति का उम्मीदवार अगर मेरे लिए बिजली, पानी, सड़क और रोजगार का इंतजाम नहीं कर सकता तो मुझे दूसरे उम्मीदवार को वोट देने में भी कोई गुरेज नहीं होगा।’
इसके अलावा, पुलिस ने संगठित अपराध की कमर तोड़कर रख डाली है। अपराधी हताश हैं और ज्यादातर तो जेलों में बंद हैं। उनकी सुनवाई भी फास्ट ट्रैक कोर्ट में हो रही है। विश्लेषकों के मुताबिक एक अहम बात यह है कि पूर्व में चुनावों से छह महीने पहले अपहरण की दर में अचानक इजाफा होना शुरू हो जाता था।
लेकिन इस बार आलम अलग है। इस बार अपहरण की दर बढ़ने के बजाए कम होती जा रही है। विश्लेषकों के मुताबिक दरअसल यह सब मुमकिन हो पाया है तो लोगों की सोच की वजह से। अब उन्हें बुलेट से बैलेट कहीं बेहतर दिखाई देने लगा है।
फिर भी मतदान कम क्यूं?
पहले लोग वोट देने इसलिए नहीं जाते थे क्योंकि उन्हें अपनी जान का खतरे में दिखाई देती थी। इस बार ऐसा नहीं है। फिर भी मतदान का फीसदी कम क्यों रहा? इस बारे में विश्लेषक बताते हैं कि दरअसल ऐसा हुआ लोगों के बहिष्कार की वजह से। कई स्थानीय मुद्दों को लेकर कई जगहों पर लोग मत डालने ही नहीं आए।
इसके अलावा, नक्सलवादियों का खौफ तो था ही। इसी खौफ की वजह से गया, सासाराम, औरंगाबाद, जमुई और मुंगेर के नक्सल प्रभावित इलाकों में कुछ मतदान केंद्रों पर एक भी वोट नहीं डाला गया। मुजफ्फरपुर के अनिल पासवान ने भी इस बार वोट नहीं डाला। उनका कहना है कि, ‘इस बार चुनाव में उम्मीदवारों के पास कोई मुद्दा ही नहीं है। वे सभी एक ही जैसी बात कहते हैं। ऐसे में मेरा वोट डालने का मन ही नहीं किया।’
