कोविड महामारी ने भारत सहित दुनिया भर में भी लगभग सभी तबकों पर चोट की है। खासकर, प्रवासी कामगारों के लिए यह महामारी आफत का पहाड़ बन कर टूटी है। पिछले छह महीनों में इनके लिए पूरी दुनिया ही बदल गई है। रमेश चंद श्रीवास्तव उनमें एक हैं। श्रीवास्तव जब 15 वर्ष के थे तब उनके पिता का अचानक निधन हो गया था। श्रीवास्तव के एक रिश्तेदार उन्हें प्रयागराज के पचदेवड़ा गांव से लेकर मुंबई आ गए। अब 46 वर्ष के हो चुके श्रीवास्तव को लॉकडाउन के कारण करीब तीन दशक बाद अपने गांव लौटने पर विवश होना पड़ा। श्रीवास्तव के लिए मुंबई उनके लिए घर की तरह था और धारावी के पते वाला उनके पास आधार कार्ड भी है।
तो क्या लॉकडाउन के बाद पैदा हुए मुश्किल हालात में श्रीवास्तव की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया? यह एक दुखद कहानी है। श्रीवास्वत कहते हैं, ‘जिस रिश्तेदार के साथ मैं मुंबई गया था वह मेरे लिए अभिभावक की तरह थे। इसके बावजूद उन्होंने मुझे दो महीने का वेतन नहीं दिया। जिस फैक्टरी में मैं काम करता था वहां अब पीपीई किट बन रहे हैं। ऐसे में जब दोबारा मुंबई आने की इच्छा जताई तो रिश्तेदार की तरफ से मुझे सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली।’ श्रीवास्तव ने पिछले सप्ताह ही किसी से 5,000 रुपये उधार लेकर अपने बड़े बेटे को पुणे में एक दवा कंपनी में काम करने के लिए भेजा है।
श्रीवास्तव उन 1 करोड़ प्रवासी मजदूरों में से एक हैं, जिन्हें लॉकडाउन के बाद रोजगार बंद होने पर अपने गांव लौटने लौटना पड़ा। सरकारी आंकड़ों की मानें तो जितने प्रवासी मजदूर अपने गांव लौटे हैं उनमें करीब एक तिहाई का ताल्लुक उत्तर प्रदेश से है। सिद्धार्थनगर (161,796) के बाद प्रयागराज में सर्वाधिक संख्या (104,009) में प्रवासी मजदूर अपने गांव लौटे हैं। देश में लॉकडाउन की घोषणा के छह महीने हो गए हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड ने प्रयागराज के 5 गांवों के दो दर्जन से अधिक लोगों से उनका हाल पूछा। अब आर्थिक गतिविधियों में थोड़ी तेजी आने के बाद ज्यादातर प्रवासी कामगार रोजगार की तलाश कर रहे हैं या अपने पुराने नियोक्ता से फोन आने का इंतजार कर रहे हैं।
हालांकि लॉकडाउन से जुड़ीं दहला देने वाली यादें अब भी उनकी जेहन में ताजा हैं। मिसाल के तौर पर 54 वर्ष के राजिंदर अपनी साइकिल से मध्य प्रदेश के रीवा से 150 किलोमीटर की दूरी तय कर प्रयागराज में अपने गांव मटियारा आए। इस यात्रा के दौरान सड़कों के किनारे ढाबे पर रात बिताने से लेकर उन्हें पुलिस के अत्याचारों से गुजरना पड़ा। राजिंदर की तरह उनके गांव के करीब 40 कामगार लौट कर आए हैं और उन्हें अब तक कोई रोजगार नहीं मिला है। सरकारी योजनाओं का लाभ भी उन्हें अब तक नहीं मिला है। ग्राम प्रधान के कार्यालय में गरीब कल्याण रोजगार योजना का बखान करने वाला एक बड़ा पोस्टर चिपका है। वापस लौटे प्रवासी कामगारों को रोजगार के अवसर मुहैया कराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 जून को इस कार्यक्रम की घोषणा की थी।
मई में मुंबई से अपने गांव लौटे 32 वर्षीय राम बाबू कहते हैं, ‘इस कार्यक्रम से जुड़ी हमारी जानकारी बस इस पोस्टर तक ही सीमित है। रोजगार चाहने वाले सभी लोगों की जानकारियां प्रधान के पास है, लेकिन हमें अब तक प्रशासन से कोई बुलावा नहीं आया है।’ दूसरी तरफ सरकार का दावा है कि उसने देश के उन 116 जिलों में 25 योजनाओं के लिए 50,000 करोड़ रुपये दिए हैं, जहां सबसे अधिक संख्या में प्रवासी मजदूर लौटकर आए हैं। सरकार का कहना है कि उसने अब तक रोजगार के 30.7 करोड़ दिवस सृजित करने पर 28,100 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
प्रयागराज में स्थानीय स्तर पर रोजगार के अधिक साधन नहीं हैं। खपत में कमी से छोटे कारोबारों ने उत्पादन कम कर दिए हैं। मटियारा में अचार एवं टमाटर की चटनी बनाने वाली कंपनी रेडिएंस एग्रो इंडस्ट्रीज ने अब 11 कर्मचारी काम रखे हैं, जबकि पहले इसमें लॉकडाउन से पहले 18 लोग काम किया करते थे।
बिजनेस स्टैंडर्ड ने जितने भी कामगारों से बात की उनमें किसी को भी तमाम सरकारी निर्देशों के बावजूद लॉकडाउन के दौरान वेतन नहीं मिला। तेजोपुर के अभय जैसे कई लोग सूरत की एक कपड़ा फैक्टरी में काम करते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद वे अपना सब कुछ वहीं छोड़कर आ गए। अब मकान मालिक उनसे लगातार किराया देने के लिए कह रहा है। ज्यादातर कामगारों की शिकायत है कि ग्राम प्रशासन ने आय का स्रोत मुहैया कराने की दिशा में न के बराबर प्रयास किया है। अब इन कागमारों के लिए रोजगार के लिए दोबारा शहर लौटना भी मुनासिब रह गया है, क्योंकि वे किराये का भी जुगाड़ नहीं कर पा रहे हैं। रेल सेवा भी पूरी तरह बहाल नहीं हो पाई है। छह महीने पहले प्रवासी कामगार अपना जीवन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे और अब वे अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद में हैं।
