बीएस बातचीत
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि कृषि विधेयक बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर किसानों के लिए बेहतर आय सुनिश्चित करेंगे। चौहान से अब कानून बन चुके विधेयकों के विभिन्न पहलुओं पर संदीप कुमार ने की बातचीत…
कृषि विधेयकों को लेकर देश भर में काफी विरोध का माहौल है। इन विधेयकों के बारे में आप क्या सोचते हैं?
मैं एक किसान के रूप में यह कह रहा हूं कि विधेयक किसानों के हित में हैं और विरोध करने वाले बेमतलब का विरोध कर रहे हैं। मैं किसी राज्य का नाम नहीं ले रहा हूं लेकिन मुझे आश्चर्य है कि वे राज्य भी विरोध कर रहे हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने के बाद किसानों को पैसे देने में आड़े टेढ़े तरीके अपनाते हैं। जबकि हम तो सीधे किसानों के खाते में पैसे डालते हैं। संबंधित विधेयक के माध्यम से सरकार किसान को यह विकल्प दे रही है कि वह अपनी उपज जहां चाहे वहां बेचे। इसमें गलत क्या है? उसे कृषि उपज मंडी में जो दाम मिलता है, वही दाम अगर व्यापारी उसके घर आकर दे रहा है तो यह तो अच्छी बात है। मेरे खेतों में धान होता है। अगर कोई घर बैठे मुझे मंडी से अच्छे दाम दे रहा है तो मेरा आना-जाना, ट्रैक्टर ट्रॉली का खर्च और समय सब बचेगा। प्रतिस्पर्धा किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए कभी खराब नहीं होती है। मंडी और कारोबारियों की प्रतिस्पर्धा में फायदा किसानों का ही होगा।
आलोचकों का कहना है कि कारोबारी कुछ वर्ष तक मंडी से बेहतर कीमत में फसल खरीद कर मंडियों को कमजोर करेंगे और बाद में मंडियां बंद हो जाएंगी तो कारोबारी मनमानी करने लगेंगे…
ऐसा कुछ नहीं होगा। मंडियों के बंद होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता, बल्कि मंडियों को और बेहतर बनाया जाएगा। आलोचक जिस संभावित गड़बड़ी की बात कर रहे हैं, उस पर नजर रखने के लिए सरकार है। मंडियों को लेकर किसी भी तरह की आशंका निर्मूल है। कृषि उपज मंडियों का एक भी कर्मचारी आने वाले समय में बेरोजगार नहीं होगा। हम तो मंडी की व्यवस्था में और सुधार कर रहे हैं। अब व्यापारी एक लाइसेंस लेकर प्रदेश में कहीं भी खरीदारी कर सकता है। मगर एक दिन में जितनी खरीदी करेगा, उतनी राशि जमानत के रूप में जमा कराई जाएगी और किसान की उपज का मूल्य उसे उसी दिन भुगतान कर दिया जाएगा। किसानों को अधिकतम तीन दिन के भीतर भुगतान किया जाना सुनिश्चित है।
ठेके पर कृषि को लेकर भी काफी सवाल हैं…
ठेके पर कृषि के प्रावधान के नाम पर भी केवल भ्रम फैलाया जा रहा है। मेरे पास आकर यदि कोई कहता है कि आप सोयाबीन लगाएं और मैं आपको 4,000 रुपये प्रति क्विंटल दूंगा, तो इसमें मेरा क्या नुकसान है। यह प्रावधान भी किया गया है कि यदि किसान को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के बजाय कहीं 6,000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा है तो वह पुराने करार से बाहर जाकर 6,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर अपना माल बेच दे। अभी किसान को कुछ नहीं पता कि उपज किस भाव बिकेगी, बिकेगी भी या नहीं। अनुबंधित कृषि किसान के हित में है क्योंकि कारोबारी भी चाहेगा कि अच्छी से अच्छी फसल उसे मिले। इस क्रम में वह उन्नत-खाद बीज के मामले में भी किसान की मदद करेगा, भले ही फसल तैयार होने पर वह उसका पैसा काट ले। इसी प्रकार अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के मुताबिक भंडारण सीमा हटने से किसान का फायदा है। पहले तय सीमा से अधिक खरीद नहीं हो पाती थी और किसान को नुकसान उठाना पड़ता था। अब किसान को अच्छे दाम मिलेंगे और बिचौलियों का नुकसान होगा।
कृषि विधेयकों की अभी क्या आवश्यकता आ पड़ी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसान हितैषी हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है। किसानों की आय दोगुना करना उनका लक्ष्य है। वह ऐसे नेता हैं जो सस्ती लोकप्रियता में यकीन नहीं करते, समस्याओं का ठोस और टिकाऊ हल तलाशने का प्रयास करते हैं। हम साथ में मुख्यमंत्री रहे हैं। तब भी हमारी बहस होती थी तो वह कहते थे कि हमें सस्ती लोकप्रियता के लिए काम नहीं करना है बल्कि दीर्घावधि में काम आने वाले उपाय खोजने हैं। इन विधेयकों के माध्यम से किसान को विकल्प मिल रहे हैं। ये विकल्प उसे बेहतर कीमत मिलना सुनिश्चित करेंगे। अब वह सीधे निर्यातकों को फसल बेच सकता है। अब उसे टै्रक्टर ट्रॉली लेकर मंडी में लाइन नहीं लगानी होगी। उसे घर पर ही अपनी फसल का अच्छा दाम मिलना तय होगा।
न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर भी सवाल हैं। क्या राज्य ऐसा कोई नियम बना सकता है कि मंडी के बाहर खरीदी करने वाले कारोबारी भी कम से कम एमएसपी के बराबर कीमत पर खरीद करें?
न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कोई सवाल नहीं है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी पहले की तरह होगी। बल्कि केंद्र सरकार ने तो दामों में सुधार भी किए हैं और पिछले साल 1925 रुपये प्रति क्विंटल में खरीदा गया गेहूं अब 1975 रुपये प्रति क्विंटल में खरीदा जाएगा। धान, मसूर, उड़द, मूंग, अरहर, सरसों, चना, मूंगफली सभी का समर्थन मूल्य सुधरा है। जहां तक कारोबारियों के लिए मूल्य तय करने की बात है तो किसान को मंडी में जो कीमत मिल रही है, कारोबारी को मजबूरन उतनी या उससे बेहतर कीमत तो देनी ही होगी, तभी किसान उसे उपज बेचेगा।
विधेयक के विरोधियों का यह भी कहना है कि यह विधेयक किसानों नहीं बल्कि बड़ी कंपनियों और कारोबारियों के फायदे वाला साबित होगा?
देखिए पहली बात तो यह कि यह पूरी तरह किसान पर निर्भर करता है कि वह किसी कंपनी से करार करना चाहता है या नहीं। अगर वह किसी कंपनी, खाद्य प्रसंस्करण इकाई या फैक्टरी को अपनी उपज बेचना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है? यदि कोई कंपनी तीन या चार महीने बाद उसकी उपज खरीदने का करार करती है तो इसमें क्या किसी का नुकसान है? कई बार भाव इतने गिर जाते हैं कि फसल तैयार होते-होते उसके लिए कोई फायदा नहीं बचता। अब उसे पहले से पता होगा कि मुझे तीन महीने बाद अमुक भाव मिलना है। किसान के फायदे की दूसरी बात यह है कि व्यापारी ने अगर 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के दाम पर उपज खरीदने का करार किया है तो वह इसे घटाकर 3,000 रुपये प्रति क्विंटल नहीं कर सकता। परंतु यदि किसान को 4,000 रुपये प्रति क्विंटल से अच्छे दाम मिल रहे हैं तो वह झट से उस करार से बाहर जा सकता है।
कुछ लोग भ्रम फैला रहे हैं कि फसलों के बदले व्यापारी धीरे-धीरे किसान की जमीनों पर कब्जा कर लेंगे। इसमें रत्ती भर भी सचाई नहीं है। करार केवल एक फसल का होगा और फसल तक ही सीमित रहेगा। जमीन किसान की है और रहेगी, इसमें कहीं कोई संशय नहीं है।
यदि विधेयक इतने ही बेहतर हैं तो इतना विरोध क्यों हो रहा है? भारतीय किसान संघ भी इसके विरोध में है।
देखिए मध्य प्रदेश में कहीं कोई विरोध नहीं है। मेरी जानकारी में भारतीय किसान संघ के की ओर से भी किसी विरोध की जानकारी नहीं है।
विरोध करने वाले कुछ तत्त्व हैं जिनका मैं नाम नहीं लूंगा। वे बेमतलब का विरोध कर रहे हैं। न तो मंडी बंद हो रही है न न्यूनतम समर्थन मूल्य बंद हो रहा है।