भले ही कुछ अहम आर्थिक सूचक आर्थिक मोर्चे पर खुशनुमा अहसास के दोबारा लौटने के संकेत दे रहे हों, लेकिन घरेलू कंपनियां कुछ मुद्दों को लेकर खासी चिंतित नजर आ रही हैं।
कंपनियों को मांग घटने की चिंता सता रही है। साथ ही, घटते निवेश और नई परियोजनाओं की गति में ठहराव भी घरेलू कंपनियों की परेशानी का सबब है। पिछले कुछ सालों में देश में हुए तेज आर्थिक विकास में निजी कंपनियों की निर्णायक भूमिका रही है।
मार्च 2008 तक देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 फीसदी के आसपास रही। इन वर्षों में देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में निजी कंपनियों का खर्च 16 फीसदी तक पहुंच गया था। अगर जीडीपी की विकास दर में बहुत गिरावट आती है, तब मांग प्रभावित होना लाजिमी है, जो सीधे तौर पर कंपनियों की सेहत पर असर डालेगा।
जेएसडब्ल्यू स्टील के संयुक्त प्रबंध निदेशक शेषगिरी राव कहते हैं कि अगर यही स्थिति रही, तो हालात और बदतर हो सकते हैं। इससे तभी बचा जा सकता है, जब नकदी की किल्लत न हो और कंपनियां पैसा जुटाने में सक्षम होने के साथ-साथ दोबारा निवेश करने में जुटें। फिलहाल, बैंक भी बहुत दम-खम के साथ आगे नहीं आ रहे हैं।
अर्थव्यवस्था में तेजी के दौर में एक साल निजी क्षेत्र में किया गया निवेश जीडीपी के 20 फीसदी के बराबर तक पहुंच गया था। एचडीएफसी बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ कहते हैं, ‘निवेश के लिए खर्च की जाने वाली रकम में कोई सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। कुल मिलाकर स्थिति बहुत अनिश्चित बनी हुई है।’
नई परियोजनाओं की स्थिति पर नजर रखने वाली प्रोजेक्ट्सटुडे डॉट कॉम के आंकड़ों के मुताबिक, 2008-09 की दूसरी छमाही में निजी क्षेत्र की भारतीय कंपनियों के निवेश में 51 फीसदी की कमी आई। इस वित्त वर्ष की पहली छमाही में जहां 5,78,912 करोड़ रुपये का निवेश हुआ, वहीं दूसरी छमाही में निवेश का यह आंकड़ा घटकर 2,83,722 करोड़ रुपये रह गया।
अगर परियोजनाओं की संख्या की बात करें, तो वित्त वर्ष 2008-09 की पहली छमाही में 7,112 नई परियोजनाओं के मुकाबले दूसरी छमाही में 5,421 नई परियोजनाएं ही परवान चढ़ सकीं। इसमें भी विनिर्माण क्षेत्र की हालत सबसे ज्यादा खस्ता रही, जिसकी दूसरी छमाही की परियोजनाओं में पहली छमाही की तुलना में 63.83 फीसदी कम निवेश हुआ।
बरुआ कहते हैं, ‘निवेश परिदृश्य बहुत बड़ा है, हमारे तंत्र में जोखिम भी बहुत बड़ा बना हुआ है।’ नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के दौर के बाद से देश की अर्थव्यवस्था ने तेज रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी और वक्त के साथ ही इसमें निजी क्षेत्र का दायरा भी बढ़ता गया।
एक साल तो ऐसा आया कि निजी क्षेत्र का खर्चा सरकारी खर्चे की सीमा को भी लांघ गया, लेकिन मौजूदा दौर में निजी क्षेत्र में निवेश भी सिकुड़ रहा है। वैसे, कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि घरेलू उपभोग और ग्रामीण भारत देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत संबल दे सकता है।
इनका मानना है कि अगर सरकारी निवेश में इजाफा हो तो स्थिति को कुछ हद तक काबू में रखा जा सकता है, लेकिन निजी क्षेत्र में कम निवेश से निर्यात लगातार कम होता जाएगा। स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स एशिया प्रशांत के मुख्य अर्थशास्त्री सुबीर गोकर्ण कहते हैं, ‘उपभोक्ताओं और सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी कुछ हद तक स्थिति को काबू में रखेगी, लेकिन यह रास्ता पूरी तरह से कारगर साबित नहीं होगा।’
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि केंद्र में बनने वाली नई सरकार अगर बुनियादी ढांचे पर खर्च में बढ़ोतरी करती है, तब भी मांग को पटरी पर लाने में में कम से 3 से 6 महीने का वक्त लो लगेगा।
विकास की फिक्र
कम निवेश के चलते नई परियोजनाओं पर पड़ रहा है असर
देश की विकास दर पर भी प्रतिकूल असर पड़ने की है आशंका
बीते वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में निजी क्षेत्र की कंपनियों के निवेश में 51 फीसदी की कमी
नई सरकार पर है मांग बढ़ाने का दारोमदार
