सितंबर 2008 को खत्म हुई इस साल की दूसरी तिमाही में कंपनियों की शुध्द बिक्री में हुए सबसे ज्यादा इजाफे के बावजूद कंपनियों का प्रदर्शन इस दौरान सबसे खराब रहा है।
भले ही वह मार्क टु मार्केट नुकसान की प्रोवीजनिंग करने के बाद हो या उसके बिना लेकिन कंपनियों का शुध्द मुनाफा इस बार गिरा है। 1754 सूचीबध्द कंपनियों के सैम्पल के अध्ययन के मुताबिक उनके शुध्द मुनाफे में 34.2 फीसदी की गिरावट रही जबकि 165 कंपनियों ने विदेशी कर्ज और हेजिंग के नुकसान के लिए 9995 करोड़ का मार्क टु मार्केट प्रोवीजन किया।
लेकिन इन 165 कंपनियों ने अपने इस घाटे की प्रोवीजनिंग नहीं की होती और इस घाटे को आगे बढा ले जाते तो भी इन कंपनियों के शुध्द मुनाफे में 13.8 फीसदी की कमी दर्ज होती। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समायोजित शुध्द मुनाफे में 34.2 फीसदी और गैर समायोजित शुध्द मुनाफे में 13.8 फीसदी की कमी रहती।
इन 165 कंपनियों का मार्क टु मार्केट नुकसान पहली तिमाही में 7550 करोड़ रुपए का ही रहा था। दूसरी तिमाही में इन 165 कंपनियों के शुध्द मुनाफे में कुल 61.4 फीसदी की कमी दर्ज की गई है (पहली तिमाही में 11.2 फीसदी की गिरावट) जबकि इस दौरान इनकी शुध्द बिक्री में 41 फीसदी का भारी उछाल देखा गया है।
हालांकि बाकी की बची 1589 कंपनियों में से 27 ने 3400 करोड़ का मार्क टु मार्केट नुकसान के लिए प्रोवीजनिंग की जबकि उन्होने समझा कि इस तरह के नुकसान का मतलब कैश फ्लो में कमी नहीं। फिर भी इन 1589 कंपनियों के शुध्द मुनाफे में 10.9 फीसदी की कमी रही जो इस बात का संकेत है कि दूसरी तिमाही में कंपनियों ने खराब प्रदर्शन किया है।
जिन कंपनियों ने एफसीसीबी के ईल्ड टु मेच्योरिटी रिडम्पशन का रास्ता चुना उन्होने प्रॉफिट ऐंड लॉस खाते में मार्क टु मार्केट (एमटीएम)नुकसान दिखाने के बजाए बैलेंस शीट में इसकी प्रोवीजनिंग की। रिलायंस इंडस्ट्रीज, सत्यम कंप्यूटर, बजाज ऑटो, रिलायंस कम्युनिकेशन, विप्रो और एस्सार शिपिंग जैसी बडी क़ंपनियों ने अपने सालाना खातों में एक्सचेंज ट्रांसलेशन नुकसान को दिखाना शुरू कर दिया और उसके मुताबिक तिमाही खातों में इसकी कोई प्रोवीजनिंग नहीं की गई।
कॉमर्शियल बारोइंग्स पर एक्सचेंज की दरों में आए उतार चढ़ाव से होने वाले एमटीएम नुकसान और एफसीसीबी के अनरियलाइज्ड हिस्से का ब्याज नोशनल यानी सांकेतिक नुकसान होते हैं जिन्हे हालात सुधरने के साथ राइट-बैक किया जा सकता है।
एक्सॉटिक डेरिवेटिव प्रॉडक्ट्स और एक्सपोर्ट रेवन्यू की रुपए-डॉलर के रेट से हेजिंग से होने वाले नुकसान को रियलाइज किया जा सकता है लिहाजा उन्हे रिवर्ट बैक नहीं किया जा सकता। फिर भी 1754 कंपनियों के तिमाही आंकडों के विश्लेषण से साफ है कि दूसरी तिमाही के खराब नतीजों की बड़ी वजह रही हैं, कच्चे माल की ज्यादा लागत, इंवेन्टरी का नुकसान, रिफाइनरियों की अंडर रिकवरी, फंड की बढ़ती लागत और करेंसी की कीमत में भारी उतार चढ़ाव जिसके कारण मार्क टु मार्केट नुकसान हुए।
यह नेगेटिव ग्रोथ ज्यादातर तेल मार्केटिंग कंपनियों और एयरलाइन कंपनियों के नुकसान की वजह से रही, इसके अलावा कर्ज के रीवैल्यूएशंस से होने वाला मार्क टु मार्केट नुकसान भी इसकी वजह बना। रियल एस्टेट, सीमेन्ट, कैपिटल गुड्स, टेलिकॉम और ऑटो कंपनियों ने आमतौर पर निराश किया जबकि आईटी, बैंक, एफएमसीजी, फार्मा और कंस्ट्रक्शन कंपनियों ने उम्मीदों के अनुरूप काम किया।
दूसरी तिमाही में कच्चे माल की लागत 54.8 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है जबकि शुध्द बिक्री की ग्रोथ इस दौरान 38 फीसदी की दर से रही है जिससे कंपनियों की प्रॉफेटिबिलिटी पर असर पड़ा है। कच्चे माल की लागत का बढ़ना इसलिए भी अहम है कि क्योकि उत्पादन की लागत में बढ़ने में इसकी 54.2 फीसदी हिस्सेदारी रही है जबकि पहली तिमाही में इसकी हिस्सेदारी 49.8 फीसदी की रही है।
इन कंपनियों ने अगर पहली तिमाही का ही अनुपात बरकरार रखा होता तो इन कंपनियों का मुनाफा इस दौरान 10,000 करोड़ रुपए से बढ़ जाता। कच्चे माल की कीमतों में इजाफे का अच्छा खासा असर पडा है खासकर रिफाइनरी, कैपिटल गुड्स, सीमेन्ट, मेटल, हाउसिंग कंस्ट्रक्शन और केबल्स सेक्टर की कंपनियों के कारोबार पर। इन सेक्टरों के कारोबार में कच्चे माल की लागत से काफी गिरावट देखने को मिली है।
इसके अलावा फंड की बढ़ती लागत जो करीब 100 फीसदी यानी 8200 करोड़ रुपए से बढ़ गई, इसने भी कंपनियों के मुनाफे पर असर डाला है। रिफाइनरी, स्टील, फर्टिलाइजर्स, पावर, ऑटोमोबाइल्स, टेलिकॉम, फार्मा, इंजीनियरिंग और कंस्ट्रक्शन कंपनियों पर ब्याज दरों में इजाफे का सबसे ज्यादा असर पड़ा। इस दौरान कंपनियों की शुध्द बिक्री की ग्रोथ 38 फीसदी पर मजबूत रही है।
इसमें रिफाइनरी, स्टील, टेलिकॉम, कंस्ट्रक्शन और इंजीनियरिंग कंपनियां शामिल हैं। जबकि सीमेन्ट, ऑटो, मेटल, होटल, हाउसिंग कंस्ट्रक्शन और कंप्यूटर हार्डवेयर कंपनियों की शुध्द बिक्री में ग्रोथ बहुत धीमी रही।
यह ग्रोथ जिन कंपनियों में मजबूत रही वह खासकर वो कंपनियां जिन्होने कीमतों में इजाफा किया और महंगाई का भार ग्राहकों पर डाला। अब कमजोर मांग को देखते हुए अब महंगाई का भार अपने ग्राहकों पर डालना कंपनियों के लिए और मुश्किल हो जाएगा जिसका असर उनकी बिक्री की ग्रोथ पर भी पड़ सकता है।
सेक्टरों पर नजर
निर्माण
कंस्ट्रक्शन कंपनियां जो इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के क्षेत्र में हैं उन्होने सितंबर 2008 को खत्म हुई दूसरी तिमाही में अच्छा कारोबार किया। उनकी बिक्री में 40 फीसदी की ग्रोथ रही जबकि शुध्द मुनाफे में 34 फीसदी का इजाफा रहा।
शुध्द मुनाफे मे यह कमी कच्चे माल की कीमतों में 62 फीसदी की तेजी और ब्याज की लागत में 54 फीसदी के इजाफे की वजह से रही। बिक्री में यह इजाफा बढ़िया ऑर्डर बुक और इन ऑर्डरों की समय से पूरे होने की वजह से रहा।
इन कंपनियों ने इस दौरान ऑर्डर के इनफ्लो में 52 फीसदी का इजाफा देखा। हालांकि इन कंपनियों ने रोड सेगमेन्ट और बिल्डिंग और हाउसिंग सेगमेन्ट में मंदी भी देखी। निकट भविष्य में आम चुनावों के मद्देनजर इसमें अस्थाई मंदी बनी रह सकती है। इस दौरान इन कंपनियों के ऑपरेटिंग मार्जिन भी सालाना आधार पर 0.07 फीसदी कम हुआ जबकि तिमाही आधार पर यह 1.27 फीसदी बढ़ गया है।
शुध्द मुनाफे में 34 फीसदी की तेजी रही क्योकि नेट मार्जिन में 0.48 फीसदी से कम हुए जबकि ब्याज की लागत में डेट की जरूरत बढ़ने और कर्ज की लागत बढ़ने से 54 फीसदी बढ़ गई। एचसीसी और पटेल इंजीनियरिंग की ब्याज की लागत बिक्री की तुलना में काफी ज्यादा है। सेक्टर फंड की उपलब्धता और ऊंची ब्याज दरों की संकट से जूझ रहा है।
ये संकट ऊंची लीवरेज वाली कंपनियों के लिए और गहरा जाते हैं। पटेल इंजीनियरिंग की बिक्री में अच्छी खासी बढ़त के बावजूद ब्याज की लागत बढ़ने से इसके शुध्द मुनाफे में मामूली बढ़ोतरी देखने को मिली। आईवीआरसीएल इंफ्रा. प्रोजेक्ट्स की बिक्री भी मजबूत रही जिसका शुध्द मुनाफे पर असर दिखा।
दूसरे स्त्रोतों से आय बढ़ने के कारण ब्याज लागत में इजाफे का इस पर उतना असर नहीं रहा जिससे इसका मुनाफा अच्छा रहा। इस समय तीन बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनियों के ऑर्डर बुक काफी मजबूत हैं और बुक टु सेल्स अनुपात वित्त वर्ष 2008 के टर्नओवर का 2.6 गुना है और यह वित्त वर्ष 2009 में इनकी अनुमानित बिक्री के लक्ष्य को पूरा करने में पूरी मदद करेगा। हालांकि आने वाले चुनावों में तरलता की तंगी और निवेश के बिगड़ते माहौल से इनके ऑर्डर बुक की रफ्तार जरूर धीमी पड़ेगी।
एफएमसीजी
फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स यानी एफएमसीजी कंपनियों का पर्सनल केयर उत्पादों का कारोबार दूसरी तिमाही में 22.2 फीसदी बढ़ा है और फूड प्रॉडक्ट्स यानी खाद्य उत्पादों का कारोबार 25.8 फीसदी बढ़ा है, इनकी बिक्री में अच्छी ग्रोथ देखी गई जबकि सिगरेट बनाने वाली कंपनियां जिन्होने एग्रो और एफएमसीजी उत्पादों में डाइवर्सिफाई किया है, उनकी बिक्री में 15 फीसदी की मामूली ग्रोथ देखी गई।
हालांकि खाद्य उत्पादों और पर्सनल केयर फर्मों का शुध्द मुनाफा 15 फीसदी बढ़ा जबकि सिगरेट कंपनियों के शुध्द मुनाफे में 5 फीसदी की ग्रोथ देखी गई। एफएमसीजी की इन तीनों श्रेणियों में ऑपरेटिंग मार्जिन डेढ़ से तीन फीसदी तक गिरा है क्योंकि कई कंपनियां कंपटीशन की वजह से कच्चे माल की कीमतों में इजाफे का भार अपने ग्राहकों पर नहीं डाल पायीं।
ज्यादातर एफएमसीजी कंपनियों को जिंसों की कीमतों में आई नरमी का भी फायदा नहीं मिल सका क्योकि ज्यादातर के पास कच्चे माल का काफी बड़ा भंडार इकट्ठा था। विश्लेषकों को उम्मीद है कि ग्रामीण इलाकों में मांग अच्छी रहने से बिक्री में अच्छी ग्रोथ बरकरार रहेगी। ग्रामीण इलाकों में आय भी खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने, लोन माफी, संतोषजनक मानसून और नई रोजगार योजनाओं से सुधरी है।
विश्लेषकों का कहना है कि सभी एफएमसीजी कंपनियां खासकर साबुन और डिटरजेंट बनाने वाली कंपनियों को कच्चे तेल की कीमतें गिरने का लाभ मिलेगा। मोतीलाल ओसवाल रिसर्च के एफएमसीजी एनालिस्ट का मानना है कि साबुन, डिटरजेंट, पेंट जैसे उत्पादों की मांग में कमी आने से इनके वॉल्यूम में कमी देखी जा सकती है। निर्माण क्षेत्र में मंदी का पेंट कंपनियों पर असर पड़ सकता है।
इसके अलावा पाम तेल, पैकेजिंग की कीमतों में कमी आई है। चीनी और कोपरा की कीमतें भी नरम पडने लगी हैं। एडिलवायस सेक्योरिटीज के एफएमसीजी एनालिस्ट के मुताबिक हिंदुस्तान यूनीलीवर और गोदरेज कंज्यूमर प्रॉडक्ट्स को कमोडिटी की कीमतों में गिरावट का सबसे ज्यादा फायदा मिलने वाला है। हिंदुस्तान यूनीलीवर के लिए साबुन, डिटरजेंट की कुल बिक्री में हिस्सेदारी 44 फीसदी रहती है जबकि गोदरेज की साबुन में हिस्सेदारी 60 फीसदी की है।
औषधि
इस साल की दूसरी तिमाही में इस सेक्टर की कंपनियों ने मिले जुले नतीजे दिए। सन फार्मा, ल्यूपिन, आईपीसीए लैब और कैडिला हेल्थकेयर जैसी कंपनियों का प्रदर्शन तो उम्मीद से बेहतर रहा जबकि रैनबैक्सी और वोक्हार्ट जैसी कंपनियों के नतीजे निराशाजनक रहे। पीरामल हेल्थकेयर, ग्लेनमार्क फार्मा और एल्डर फार्मा के नतीजे उम्मीदों के अनुरूप ही निकले।
कंपनियों के कमजोर प्रदर्शन के लिए अमेरिकी डॉलर और यूरो की तुलना में रुपए की कमजोरी को जिम्मेदार माना गया। रुपए की कमजोरी ने कंपनियों को ऑपरेशंस में तो फायदा पहुंचाया लेकिन उनके लाभ को भी प्रभावित कर दिया क्योकि रुपए के उतार चढ़ाव की वजह से कंपनियों को खासा मार्क टु मार्केट नुकसान हुआ।
फार्मा कंपनियों के शुध्द मुनाफे में इस कारण 36 फीसदी की गिरावट रही और इन कंपनियों को कुल 874 करोड़ रुपए का मार्क टु मार्केट नुकसान हुआ जो दूसरी तिमाही के शुध्द मुनाफे का 68 फीसदी है। कई कंपनियों ने इस नुकसान को इस उम्मीद में आगे बढ़ा दिया कि रुपए की कीमतों में सुधार से उनका नुकसान कम हो जाएगा और यह फार्वर्ड कवर 39-42 रुपए प्रति डॉलर के भाव पर लिये गए।
जिन कंपनियों ने अधिग्रहण के लिए विदेशी कर्ज लिया उन्होने इस तरह के नुकसान की प्रोवीजनिंग तो कर रखी थी। इसके अलावा जिन कंपनियों का कारोबार अमेरिका में है उनकी लागत में भी रुपए की कीमत गिरने से इजाफा हो गया।
रैनबैक्सी लैब्स, सिपला, अरबिंदो फार्मा, ऑर्किड केमिकल्स, वोक्हार्ट और पीरामल हेल्थकेयर ने भी विदेशी कर्ज पर मार्क टु मार्केट नुकसान दर्ज किया। इस नुकसान की वजह से इन कंपनियों के शुध्द मुनाफे में भी गिरावट दर्ज की गई। सन फार्मा, ल्यूपिन, कैडिला हेल्थकेयर और डिवीस लैब्स के बिक्री में उछाल आ जाने से इनके शुध्द मुनाफे में इजाफा देखने को मिला।
आईसीआईसीआई सेक्योरिटीज के फार्मा एनालिस्ट के मुताबिक साल 2008-09 में जिन कंपनियों को भारी मार्क टु मार्केट नुकसान होगा उनमें रैनबैक्सी, सिपला, जूबिलेंट ऑर्गैनोसिस, बायोकॉन और पीरामल हेल्थकेयर शामिल हैं।
दूसरी तिमाही में इन कंपनियों की ब्याज पर लागत में 518 फीसदी का इजाफा आ गया और इसने सिपला, रैनबैक्सी, डॉ रेड्डीस, पीरामल, अरबिंदो और ऑर्किड जैसी कंपनियों के लाभात्मकता पर असर डाला।
उर्वरक
फर्टिलाइजर यानी उर्वरक सेक्टर के लिए साल 2008-09 की दूसरी तिमाही बेहतरीन रही और इस सेक्टर की कंपनियों के कुल शुध्द मुनाफे में 66 फीसदी की ग्रोथ रही जबकि शुध्द बिक्री में 84 फीसदी का इजाफा रहा।
आरसीएफ और फैक्ट जैसी सरकारी कंपनियों की रेवेन्यू ग्रोथ 75 फीसदी पर मजबूत रही जबकि मैंगलोर केमिकल्स, चंबल फर्टिलाइजर्स, जुआरी इंडस्ट्रीज और टाटा केमिकल्स जैसी निजी कंपनियों की बिक्री में 100 फीसदी की ग्रोथ देखी गई। रेवेन्यू में यह इजाफा कच्चे माल की बढ़ी लागत ग्राहकों को पास कर देने की वजह से देखी गई और इसके अलावा वॉल्यूम भी काफी रहा।
शुध्द मुनाफे को देखें तो आरसीएफ (शुध्द मुनाफे में 116.6 फीसदी का मुनाफा), मैंगलोर फर्टिलाइजर्स (77.4 फीसदी का इजाफा), जीएलएफसी (94.7 फीसदी का इजाफा) और कोरोमंडल फर्टिलाइजर्स (73 फीसदी का इजाफा) के साथ सेक्टर में बेहतर प्रदर्शन कर सके।
शुध्द मुनाफे में यह इजाफा डीएपी और कॉम्प्लेक्स फर्टिलाइजर्स की इन्वेन्टरी बढ़ने और यूरिया में अच्छा वॉल्यूम रहने से देखा गया। सरकार नियंत्रित फर्टिलाइजर उद्योग को सरकार की नीतियों में हाल में हुए बदलाव का भी फायदा मिला। नई नीति में नैचुरल गैस में शिफ्ट करने को बढ़ावा दिया गया ।
इन कदमों से इन कंपनियों की प्रॉफिटेबिलिटी बढ़ने के आसार है और इक्विटी पर रिटर्न भी बढेग़ा क्योकि इंपोर्ट आधारित रियलाइजेशन काफी ज्यादा हैं और नैचुरल गैस की लागत नाप्था से आधी है जो सबसे बड़ा कच्चा माल है।
नैचुरल गैस यूरिया का सबसे बढ़िया फीडस्टॉक है। केजी बेसिन गैस की वजह से 2011 तक घरेलू गैस उत्पादन बढ़कर दोगुना हो सकता है। सरकार ने इंक्रिमेंटल गैस की सप्लाई में फर्टिलाइजर को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी है। मेरिल लिंच की रिसर्च के मुताबिक इस सेक्टर के माजिर्न में एक फीसदी तक का सुधार आ सकता है।
हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उर्वरक की कीमतें गिरने से सरकार की नई नीति का असर जरूर कम होगा। सितंबर में यूरिया की कीमतें 550 डॉलर प्रति टन थीं जो नई यूरिया नीति का फायदा सेट ऑफ करने के बाद भी घटकर 300 डॉलर प्रति टन रह गई हैं।
सीमेंट
सीमेंट सेक्टर की शुध्द बिक्री में दूसरी तिमाही में 15.1 फीसदी का इजाफा देखने को मिला जबकि इसके शुध्द मुनाफे में 25.8 फीसदी की गिरावट रही। इसकी मुख्य वजह कच्चे माल की बढ़ती लागत ब्याज का दबाव रहा। कंपनीवार प्रदर्शन देखा जाए तो मिलाजुला रुख देखने को मिलता है।
दक्षिण की कंपनियों ने ठीकठाक ग्रोथ दर्ज की जबकि पश्चिम भारत की कंपनियों ने शुध्द बिक्री में इकाई अंकों का ही इजाफा दर्ज किया। लेकिन शुध्द मुनाफे में कमी सभी क्षेत्रों में देखी गई। कंपनियों के रेवेन्यू में ग्रोथ वॉल्यूम में आए 11.6 फीसदी के इजाफे और औसत रियलाइजेशन में 5.1 फीसदी के इजाफे की वजह से रही।
बिरला कार्पो., प्रिज्म सीमेन्ट, मैसूर सीमेन्ट और आंध्रा सीमेन्ट की बिक्री में गिरावट देखने को मिली जबकि अंबुजा सीमेन्ट, एसीसी, जेके सीमेन्ट और मंगलम सीमेन्ट की शुध्द बिक्री में इजाफा इकाई अंकों में ही रहा। हालांकि इंडिया सीमेन्ट, श्री सीमेन्ट, मद्रास सीमेन्ट और डालमिया सीमेन्ट की शुध्द बिक्री में 20 फीसदी की ग्रोथ दर्ज की गई।
सीमेन्ट सेक्टर भी मार्जिन के दबाव में रहा और इसकी वजह लागत में इजाफा ही रहा। सीमेन्ट कंपनियों का ऑपरेटिंग मार्जिन सालाना आधार पर 8.38 फीसदी घट गया और तिमाही आधार पर यह गिरावट 6.69 फीसदी की रही। इस तिमाही में इस सेक्टर के बिजली और ईंधन के खर्चों में काफी इजाफा आ गया और इसकी वजह रही आयातित कोयले की कीमतें बढ़ना और डीजल महंगा होने से भाड़े में इजाफा होना।
खराब ऑपरेटिंग प्रदर्शन, ऊंची ब्याज दर और डेप्रिसिएशन की वजह से ज्यादातर कंपनियों के शुध्द मुनाफे में गिरावट दर्ज की गई है। कंस्ट्रक्शन और रियल एस्टेट सेक्टरों में मंदी और अगले तीन-चार तिमाहियों में सीमेन्ट क्षमता बढ़ोतरी को देखते हुए शेयरखान के सीमेन्ट एनालिस्ट का मानना है कि सीमेन्ट कंपनियों के क्षमता के इस्तेमाल में अभी और गिरावट देखी जाएगी।
अक्टूबर में सीमेन्ट उद्योग ने उत्पादन में 6.13 फीसदी का इजाफा दर्ज किया था हालांकि इस महीने के डिस्पैच में 3.78 फीसदी का इजाफा हुआ है । उत्पादन और डिस्पैच में करीब 6.2 फीसदी का इजाफा दर्ज किया जाएगा।
इस्पात
दूसरी तिमाही में स्टील कंपनियों ने अपने शुध्द मुनाफे की ग्रोथ को बरकरार रखा है, दूसरी तिमाही में यह 17.65 फीसदी रही जबकि पहली तिमाही में यह 16 फीसदी था। शुक्र हो टाटा स्टाल और जिंदल स्टील का जिनके शुध्द मुनाफे में 50 फीसदी का इजाफा देखा गया।
इस दौरान बिक्री भी बेहतर रही इसकी ग्रोथ में 41.91 फीसदी की इजाफा रहा जबकि पहली तिमाही में यह इजाफा 37.14 फीसदी का था। हालांकि कच्चे माल की लागत, खासकर कच्चा लोहा और कोयला 52 फीसदी महंगे हुए जबकि बिक्री की रफ्तार 41.91 फीसदी से ही बढ़ी है जिससे इसके ऑपरेटिंग मार्जिन पर दबाव बना है जो सालाना आधार पर करीब 3.42 फीसदी गिरा है जबकि पिछली तिमाही से 1.83 फीसदी कम हुआ है।
घरेलू उत्पादक जिन्होने सरकारी नियंत्रण के बावजूद जून 2008 में हुए कीमतों में इजाफे को ग्राहकों को पास ऑन किया था लेकिन जुलाई 2008 में किए गए इजाफे को वापस लेना पड़ा था। इसके अलावा सितंबर के मध्य में अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्टील की कीमतें कम हुई थीं जिससे घरेलू बाजार में भी कई किस्मों की कीमतें अपने उच्चतम स्तर से 40 फीसदी तक गिर गई थीं।
ब्याज दरों की लागत में इस दौरान 82.3 फीसदी का इजाफा देखा गया, हालांकि पहली तिमाही में यह 100 फीसदी था। दूसरी तिमाही ज्यादातर स्टील उत्पादकों के लिए ब्याज दरों के पुनर्निधारण के लिए रही जब इंटर बैंक लिक्विडिटी की तंगी की वजह से वर्किंग कैपिटल बॉरोइंग में आधा फीसदी का इजाफा देखा गया।
इस दौरान तरलता की तंगी और ऑर्डर में धीमापन होने से ज्यादातर स्टील उत्पादकों की इन्वेन्टरी में खासा इजाफा आ गया। स्टील कंपनियों ने ट्रांसलेशन लॉस यानी मार्क टु मार्केट के नुकसान के लिए भी 1424 करोड़ का प्रावधान किया। इस्पात इंडस्ट्रीज और जेएसएल स्टील को तिमाही नुकसान हुआ जबकि टाटा स्टील और जेएसडब्ल्यू का मुनाफे पर करेंसी के नुकसान का काफी असर पड़ा।
सितंबर 2008 से शुरू हुए वैश्विक वित्तीय संकट ने भी अंतरराष्ट्रीय बाजार पर विपरीत असर डाला है। पिछले एक महीने में स्टील की कीमतें 25 फीसदी गिर गई हैं और जून से कुल 40 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। कच्चे लोहे और कोयले की कीमतों मे भी क्रमश: 61 और 33 फीसदी गिरी हैं।