बीएस बातचीत
महामारी के शुरुआती झटकों के बाद वृद्धि के हिसाब से बीमा क्षेत्र ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया। भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) के चेयरमैन सुभाष चंद्र खुंटिया ने ई-मेल से दिए गए एक साक्षात्कार में सुब्रत पांडा से बीमा फर्मों में बैंकों की शेयरधारिता, दिवाला संबंधी चिंता, सावधि योजना की लागत बढऩे सहित तमाम मसलों पर बात की। प्रमुख अंश…
क्या आईआरडीएआई इस समय रिजर्व बैंक के साथ बीमा कंपनियों में बैंकों की हिस्सेदारी की सीमा तय करने पर बात कर रहा है?
यह तथ्य है कि बैंकों/एनबीएफसी के बिजनेस ऑपरेशन के बीच बहुत समानता है और बीमा कंपनियां और उनसे एसोसिएशन एक दूसरे के लिए लाभदायक हैं। बैंक शाखाएं पूरे देश में फैली हैं और बीमा कंपनियों को बड़े पैमाने पर ग्राहक तक पहुंच दिला सकती हैं। बैंकों को कमीशन के माध्यम से आमदनी हो सकती है। इस प्रक्रिया से बीमा की पहुंच बढ़ेगी जबकि बैंकों को आमदनी का अतिरिक्त साधन मिलेगा। भारत में बीमा की पहुंच वैश्विक औसत का आधा है। हमारी भौगोलिक स्थिति और ज्यादा आर्थिक वृद्धि दर को देखते हुए यहां वृद्धि की अपार संभावनाएं हैं। इस तरह से बीमा कंपनियों के प्रवर्तक के रूप में बैंकों को अपनी कंपनी का मूल्यांकन बढ़ाने में मदद मिलेगी। आईआरडीएआई ने इस मसले पर रिजर्व बैंक से चर्चा की है और दोनों का विचार है कि बीमा कंपनियों में बैंकों की शेयरधारिता वाणिज्यिक विचार पर ही आधारित होना चाहिए।
बजट में बीमा क्षेत्र में एफडीआई 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत करने का प्रावधान किया गया। पूंजी प्रवाह के हिसाब से बीमा क्षेत्र पर इसका कितना असर होगा?
बीमा क्षेत्र की वृद्धि की क्षमता और इस तरह की वृद्धि में पूंजी की जरूरत के हिसाब से देखें तो विदेशी निवेश को भारत के बीमा क्षेत्र में समाहित करने की अपार संभावनाएं हैं। अगर मौजूदा शेयरधारिता की स्थिति देखें तो 74 प्रतिशत की सीमा किए जाने से 25,000 करोड़ रुपये से ज्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आने की संभावना है। इसके अलावा मौजूदा कंपनियों में पूंजी डालने और बढ़ी हुई एफडीआई सीमा से नई विदेशी कंपनियां आकर्षित हो सकती हैं क्यों कि भारतीय मालिकाना और नियंत्रण का प्रावधान हटा दिया गया है। इसके अलावा 6 बीमाकर्ता पहले ही सूचीबद्ध हैं और विदेशी फंड बीमा क्षेत्र में बाजार भाव पर पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आकर्षित किया जा सकता है।
जनरल और स्वास्थ्य बीमा कंपनियों में कोविड दावे बहुत बढ़े हैं। क्या इस बात को लेकर चिंता है कि भारी मात्रा में दावों से इन कंपनियों की पूंजी खत्म हो सकती है?
प्राधिकरण नियमित रूप से बीमा कंपनियों की नियामकीय पूंजी और सॉल्वेंसी की स्थिति की निगरानी करता है और 3 सार्वजनिक क्षेत्र की जनरल इंश्योरेंस कंपनियों को छोड़कर, जिन्हें कुछ फोरबियरेंस दिया गया है, सभी जरूरतों के हिसाब से पूरी तरह अनुपालन के दायरे में हैं। केंद्र सरकार ने भी इन तीन पीएसयू बीमा कंपनियों को पूंजीगत समर्थन मुहैया कराया है। ऐसे में तात्कालिक चिंता की कोई बात नहीं है। बहरहाल अथॉरिटी स्तिति पर नजदीकी से नजर रखे है और अगर जरूरी हुआ तो उसके उपचार की कार्रवाई की जाएगी।
टर्म इंश्योरेंस की दरें बढ़ रही हैं क्योंकि पुनर्बीमा करने वाले अपने टर्म पोर्टफोलियो की दरें बढ़ा रहे हैं। क्या यह चिंता है कि अगर आगे दाम और बढ़ता है तो यह खुदरा ग्राहकों के लिए वहनीय नहीं रह जाएगा?
टर्म इंश्योरेंस के प्रीमियम की दरें बड़े पैमाने पर इन बीमा पॉलिसियों को लेकर बीमा कंपनियों की जीवन प्रत्याशा की उम्मीदों पर निर्भर हैं। जोखिम प्रबंधन के हिस्सा के रूप में वे मृत्यु संबंधी जोखिम का एक हिस्सा पुनर्बीमा पर डालते हैं। इस तरह से कुछ हद तक दरें पुनर्बीमा के अनुभव पर निर्भर हैं। बहरहाल मौजूदा स्थिति में प्रीमियम में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी नहीं होगी। बीमा कंपनियों से उम्मीद है कि वे आंतरिक निगरानी के तहत अपने पुनर्बीमा समझौतों की समय समय पर समीक्षा करेंगी और ढांचे पर नियंत्रण करेंगी।
कोविड से लेकर सावधि बीमा सहित कई मानक बीमा पॉलिसियां आ रही हैं। ऐसी पॉलिसियों की क्या स्थिति है?
इसका मकसद यह होता है कि बुनियादी बीमा पॉलिसियां उपलब्ध कराई जाएं, जो बहुसंख्य ग्राहकों के लिए उपयोगी हों और एक समान लाभ मिल सके। इस तरह के उत्पादों से स्कोप, कवरेज और क्वालिटी को लेकर एक मानक स्थापित करने की उम्मीद होती है। आरोग्य संजीवनी की स्थिति संतोषजनक रही है। समग्र स्वास्थ्य बीमा उत्पाद ने 2.77 जीवन बीमा कवर किया है। अन्य मानक उत्पाद हाल में पेश किए गए और उम्मीद है कि बेहतर प्रदर्शन करेंगे। मानक उत्पाद उद्योग के लिए मानक स्थापित करने के साथ साथ बीमा की पहुंच बढ़ाएंगे और यह पहुंच पॉलिसी धारकों के विश्वास की कमी के अंतर को पाटेगी।
एक समिति ने महामारी पूल की सिफारिश की थी। क्या इस परियोजना में कोई प्रगति है?
महामारी का जोखिम व्यवस्था संबंधी जोखिम है, जिससे स्वतंत्र रूप से एक बीमा कंपनी द्वारा निपट पाना कठिन है। इस पर विभिन्न हिस्सेदारों से चर्चा चल रही है।