कच्चे तेल की कीमतों में लगातार वृद्धि के बावजूद लाइट क्रूड ऑयल के वायदा सौदे की मात्रा में जबरदस्त वृद्धि हुई है।
नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) के कारोबारी आकार में बढ़ोतरी का आलम यह है कि जनवरी 2008 में इस एक्सचेंज में जहां 5,50,600 बैरल कच्चे तेल का कारोबार हुआ था, वहीं मई में यह 19,95,600 बैरल तक जा पहुंचा है।
इस तरह महज 5 महीनों में इसमें 260 फीसदी की तेजी आ चुकी है। उल्लेखनीय है कि एक्सचेंज ने पिछले साल ही लाइट स्वीट क्रूड और ब्रेंट क्रूड तेलों में वायदा सौदे की शुरुआत की थी। महज साल भर से भी कम समय में कच्चे तेल की कीमत में 120 फीसदी से अधिक की तेजी आ चुकी है। पिछले 6 जून को तो कच्चे तेल की कीमत ने रेकॉर्ड 139 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को छू लिया था।
एनसीडीईएक्स के अर्थशास्त्री कविता चाको ने बताया कि लाइट क्रूड तेल का कारोबार जनवरी में जहां केवल 201.57 करोड़ रुपये का था वहीं मई में यह बढ़कर 1,061 करोड़ रुपये हो गया है। चाको ने बताया कि जनवरी 2008 में इस एक्सचेंज में जहां 5,50,600 बैरल कच्चे तेल का कारोबार हुआ था, वहीं मई तक इसमें 260 फीसदी की तेजी आयी और यह 19,95,600 बैरल तक जा पहुंचा।
उनके अनुसार, लाइट स्वीट क्रूड तेल के कारोबार में पिछले 5 महीनों के दौरान लगातार वृद्धि हुई। फरवरी में जहां 3,86,100 बैरल का कारोबार हुआ, वहीं मार्च में यह बढ़कर 4,91,700 बैरल तक पहुंच गया। अप्रैल में भी इसमें तेजी हुई और यह 7,01,000 बैरल तक जा पहुंचा। बकौल चाको, बाजार में तेल की कीमतों में इस समय जबरदस्त अस्थिरता है।
रोज ही कच्चे तेल की कीमतों में 2 फीसदी से अधिक का परिवर्तन हो रहा है। सालाना तौर पर देखें तो यह परिवर्तन लगभग 34 फीसदी का है। जानकारों की राय में कच्चे तेल की कीमत में लगातार हो रही वृद्धि की वजह डॉलर में कमजोरी, एशियाई देशों से कच्चे तेल की होने वाली जबरदस्त मांग, ओपेक द्वारा तेल की आपूर्ति न बढ़ाया जाना, सट्टेबाजी का बढ़ना, रिफाइनरी की समस्याएं, पश्चिमी अफ्रीका और यूरोप में आपूर्ति में पड़ने वाली बाधाएं और मध्य-पूर्व का संकट है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मंद रहने और आर्थिक विकास की वैश्विक दर में गिरावट आने के बावजूद तेल की कीमतों में रेकॉर्ड तेजी आना लगातार जारी है और यह नित्य नई ऊंचाइयों को छूता जा रहा है। चाको के मुताबिक, तेल की कीमतों में रेकॉर्ड वृद्धि को अमेरिकी डॉलर में आयी गिरावट की क्षतिपूर्ति के तौर पर देखा गया है। उनके मुताबिक, कच्चे तेल और अमेरिकी डॉलर में मजबूत रिश्ते हैं।
डॉलर में कमजोरी से कच्चे तेल की कीमत में तेजी आती है। मालूम हो कि कच्चे तेल का सौदा अमेरिकी डॉलर में होता है और इसे अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व वाले जिंसों में रखा जाता है। इसलिए डॉलर के कमजोर होने से दूसरी मुद्राओं के जरिए कारोबार करने वालों के लिए कच्चा तेल सस्ता हो जाता है।
अमेरिकी मंदी के चलते तेल की मांग में कमी न आने का कोई विशेष महत्व इसलिए नहीं है कि इसकी मांग को मुख्यत: परिवहन सेक्टर नियंत्रित करता है जो इस बात से बेपरवाह होता है कि इसका बाजार भाव क्या है! हालांकि कच्चे तेल की कीमतों के रेकॉर्ड बनाने से प्रमुख तेल उत्पादक देशों की आय में जबरदस्त वृद्धि हुई है। यही नहीं इसने निर्यातक देशों के ऊपर जबरदस्त वित्तीय बोझ भी डाला है।
भारत जहां की 78 फीसदी तेल जरूरतें आयात से पूरी की जाती हैं, वहां की अर्थव्यवस्था पर इसका काफी बुरा असर पड़ा है। 2008-09 के बारे में अंदाजा लगाया जा रहा है कि देश को कच्चे तेल के आयात पर 100 अरब डॉलर खर्च करने होंगे। यह पिछले साल के खर्च से 23 अरब डॉलर ज्यादा है। इसकी वजह से सब्सिडी पर तेल बेचने के लिए तेल विपणन कंपनियों को दी जाने वाली क्षतिपूर्ति के बढ़कर 2.45 लाख करोड़ होने का अनुमान है।