किसानों ने सभी कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित किए जाने के साथ एमएसपी तय करने के तरीकों में बदलाव करने की मांग की है।
उनकी दलील है कि एमएसपी के अभाव में सब्जी व फलों के किसानों को हर साल मुंह की खानी पड़ती है। एमसपी तय करते वक्त सरकार खेती में किसानों के परिजनों के योगदान को नजरंदाज कर देती है और किसानों की मजदूरी भी साल भर की नहीं जोड़ी जाती है। इससे अनाजों का समर्थन मूल्य काफी कम हो जाता है। अपनी मांगों के समर्थन में किसानों ने सरकार को ज्ञापन भी सौंपा है।
भारतीय किसान आंदोलन के राष्ट्रीय समन्वय समिति के पदाधिकारियों ने बताया कि इस साल किसानों को आलू की बिक्री 200 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर करनी पड़ी। आलू किसानों को जबरदस्त घाटा हुआ। आलू का न्यूनतम समर्थन मूल्य होता तो कम से कम किसानों की लागत जरूर निकल जाती।
समिति के संयोजक चौधरी युध्दबीर सिंह कहते हैं, ‘किसानों को सुरक्षा नहीं मिलने से अगले मौसम में वे उस चीज की खेती नहीं करते हैं जिससे उस वस्तु की मांग व पूर्ति में संतुलन का अभाव हो जाता है।’ समिति ने यह भी मांग रखी है कि एमसपी की घोषणा के साथ सरकार की तरफ से जिंसों की खरीदारी की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
सरकार की तरफ से खरीद में मात्र एक सप्ताह की देरी होने पर 40 फीसदी किसान दलालों व स्थानीय व्यापारियों के हाथों अपने माल को बेच देते हैं। इससे किसानों को उचित मुनाफा नहीं मिल पाता है। सिंह कहते हैं कि सरकार एमएसपी तय करते समय किसानों की मेहनत को सही तरीके से नहीं आंकती है।
फसल की कटाई के बाद किसान अगली फसल के लिए खेत को तैयार करने में लग जाता है। कुल मिलाकर किसान सालभर काम करता है, लेकिन सरकार एमएसपी में मात्र 140 दिनों की दिहाड़ी जोड़ती है। यह दिहाड़ी गैर प्रशिक्षित मजदूरों की मिलने वाली दर से जोड़ी जाती है। दूसरी बात यह है कि एमएसपी में किसानों के परिजनों के कामों का कोई मूल्यांकन नहीं होता है।