देश में तांबे की खपत 2002 से 2007 के बीच 13.7 फीसदी की सालाना विकास दर से बढ़ते हुए 5.74 लाख टन तक पहुंच गई है। इसमें से 4.9 लाख टन शुद्ध तांबा है तो 8,400 टन तांबे का रिसाइकल्ड स्क्रैप।
1990 के बाद पूरे विश्व में तांबे की खपत दर 3.1 फीसदी की दर से बढ़ी है। इस तरह, पिछले पांच साल में भारत में तांबे की खपत काफी तेज गति से बढ़ी है। फिलहाल देश में तांबे की खपत में सुस्ती आनी शुरू हुई है। ऐसा इसलिए कि महंगाई और आर्थिक संकट की वजह से यहां का निर्माण क्षेत्र अभी मंद पड़ गया है।
मालूम हो कि तांबे के अनेक इस्तेमाल हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था के रुख का तांबे की मांग और इसके कारोबार पर बहुत जल्द असर दिखता है। भारत जैसे विकासशील देश में तांबे की मांग और औद्योगिक उत्पादन के बीच का लचीलापन (उतार-चढ़ाव) 1.6 है।
हालांकि विकासशील अर्थव्यवस्था में ये घट-बढ़ तकरीबन 0.7 फीसदी का माना जाता है। मांग में हो रही वृद्धि और कीमतों में हो रही कमी के मद्देनजर आईसीआरए (इन्वेस्टमेंट इंफॉरमेशन एंड क्रेडिट रेटिंग एजेंसी) ने हाल ही में एक अध्ययन में कहा कि तांबे की खपत 10 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगी। इसके परिणामस्वरूप 2010 तक देश में तांबे की खपत बढ़कर 6.6 लाख टन सालाना हो जाएगी।
इसके बावजूद, प्रति व्यक्ति खपत के लिहाज से देश में तांबे की खपत बहुत कम है। फिलहाल देश में तांबे की प्रति व्यक्ति खपत 400 ग्राम है। पड़ोसी देश चीन में तांबे की प्रति व्यक्ति खपत जहां 3.6 किलोग्राम है वहीं अमेरिका में तांबे की प्रति व्यक्ति खपत 7 किलोग्राम तक है। आईसीआरए के मुताबिक, तांबा उद्योग की हिस्सेदारी चीन के मुकाबले बहुत ही कम है।
हालांकि अनुमान व्यक्त किया गया है कि भारत में अगले कुछ वर्षों में तांबे की खपत तेजी से बढ़ेगी। हालांकि चीन में तांबे की खपत जिस तेजी से बढ़ी उस तेजी से यहां भी वृद्धि होगी इसमें थोड़ा संशय है। हिंडाल्को, स्टरलाइट और सरकार नियंत्रित एचसीएल कंपनी की रिफाइंड तांबा उत्पादन की संयुक्त क्षमता 9.475 लाख टन है।
इसके अलावा तकरीबन एक हजार छोटे इकाइयां घरेलू और आयातित स्क्रैप से तांबा बना रही हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण काम तांबे के नए भंडार खोजने की दिशा में किया गया है। सबसे पहले खानों की उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास हुए हैं और तांबे के नए खदान खोलने लायक स्थितियां पैदा की जा रही है।
1992 के बाद से जब से निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में इजाजत दी गई तब से अब तक कई स्मेल्टिंग इकाइयां खुल चुकी हैं। एचसीएल को छोड़ दें तो बाकी सभी इकाइयों की निर्भरता आयातित तांबे पर है। वैसे कोई भी कंपनी ऐसी नहीं है जिसके पास उसके कुल उत्पादन के लिए जरूरी तांबा देश में ही उपलब्ध हो जाए।
एचसीएल को ही लें तो यह एक ऐसी कंपनी है जिसके खदानों में अभी भी 40 फीसदी अयस्क पड़ा है। वैसे एचसीएल के पास तांबे का सरप्लस भंडार होना चाहिए था लेकिन उसे तांबे का आयात करना पड़ रहा है। इसकी वजह इस सार्वजनिक कंपनी द्वारा पहले पांच खानों को बंद किया जाना है।
कोई भी खदान चालू है तो ठीक है पर यदि एक बार यह बंद हो गया तो इसे चालू करने में तमाम अड़चनें आती हैं। सार्वजनिक कंपनियों को दुबारा शुरू करना हो तो आधिकारिक मंजूरी में ही काफी समय जाया हो जाता है। हालांकि एचसीएल के अध्यक्ष सतीश गुप्ता ने बंद पड़ी खदानों को दुबारा शुरू करने के लिए कई उपाय किए हैं।
एचसीएल ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए ऑस्ट्रेलिया की मोनार्क गोल्ड माइनिंग के साथ करार किया है। इस करार के तहत यह ऑस्ट्रेलियाई कंपनी झारखंड की सुर्दा खदान को दुबारा शुरू करेगी। 2003 में जब इस खदान को बंद किया गया था तब इस खदान में 2.6 करोड़ टन तांबे का भंडार था जबकि इसके अयस्क में तांबे की हिस्सेदारी 1.2 फीसदी रही है।
2007 से तो इसे चालू करने के लिए काम भी शुरू हो गया है। गुप्ता के मुताबिक उम्मीद है कि यह खदान सालाना 9,000 टन तांबे का उत्पादन करेगी। ऐसा नहीं कि विदेशी फर्मों की सहायता से खान शुरू करने का मॉडल केवल सुर्दा में ही अपनाया जा रहा है।
राजस्थान में 2.5 करोड़ टन के भंडार वाली बनवास खान को दुबारा शुरू करने के लिए ऑस्ट्रेलिया की ही फर्म बायर्नकट माइनिंग की मदद एचसीएल ने ली है। 8 करोड़ टन क्षमता वाली झारखंड की चापड़ी सिद्धेश्वर खान को शुरू करने के लिए एचसीएल ने एक संयुक्त उपक्रम के लिए समझौते पर दस्तखत किए हैं।
गुप्ता के मुताबिक, यदि इन खानों को शुरू करने की कोशिश अकेले एचसीएल करे तो यह बुद्धिमानी नहीं होगी। किसी विदेशी फर्म के साथ गठजोड़ करने का फायदा यही है कि खनन कार्यों में बेहतरीन तकनीक और औजार का इस्तेमाल संभव हो पाता है जिससे उत्पादन परिणाम बेहतर रह पाता है।