करीब साल भर की तनातनी और किसानों के आंदोलन के बाद आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया। उन्होंने सुबह कहा कि संसद के शीतकालीन सत्र में तीनों कानून खत्म कर दिए जाएंगे। यह कदम उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों से कुछ महीनों पहले उठाया गया है। इन दोनों ही प्रदेशों में कृषि कानून विरोध किसान आंदोलन सबसे अधिक मुखर रहा है। मगर अभी यहां विधानसभा चुनावों की तारीख तय नहीं हुई हैं।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था को ज्यादा पारदर्शी और प्रभावी बनाने के लिए राज्यों एवं केंद्र के प्रतिनिधियों, किसानों और विशेषज्ञों की एक समिति गठित की जाएगी। मोदी ने सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक की जयंती गुरु पर्व के मौके पर देश को संबोधित करते हुए कहा कि ये कानून देश हित में लाए गए थे और छोटे एवं मझोले किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए थे। लेकिन लगता है कि सरकार किसानों के एक वर्ग को भरोसे में लेने में नाकाम रही, इसलिए कानून वापस लेने का फैसला किया गया है।
मोदी ने अपने संबोधन में कहा, ‘मैं सभी आंदोलनरत किसानों से अपने परिवारों और गांवों में लौटने का आग्रह करता हूं। आइए, एक नई शुरुआत करते हैं।’
इन कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन को 26 नवंबर को एक साल पूरा हो जाता। यह अब तक के सबसे लंबे आंदोलनों में से एक है। इन कानूनों को निरस्त करने को बहुत से लोग बहुप्रतीक्षित कृषि सुधारों के लिए एक झटका मान रहे हैं। लेकिन कुछ का कहना है कि अगर सरकार फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की किसानों की मांग पर झुकती है तो सुधार कमजोर पड़ेंगे। कुछ विशेषज्ञों का भी कहना है कि राज्य भी केवल कुछ कंपनियों को लाभ दिलाने के बजाय लघु एवं मझोले किसानों के फायदे के लिए कृषि में सुधार ला सकते हैं।
इस बीच आंदोलनरत किसानों ने आंदोलन तब तक जारी रखने का फैसला किया है, जब तक सभी कृषि उपजों के लिए लाभकारी कीमतों की वैधानिक गारंटी का पक्का वादा नहीं किया जाता और बिजली संशोधन अधिनियम को वापस नहीं लिया जाता। संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा, ‘वह सभी घटनाक्रमों का संज्ञान लेगा, कल अपनी बैठक करेगा और आगे के फैसलों की घोषणा करेगा।’
ये कानून कोविड की वजह से लगाए गए पहले लॉकडाउन के विवादों में घिरने के बाद जून 2020 में आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत लाए गए थे। किसानों का एक वर्ग शुरुआत से ही उन्हें एमएसपी आधारित खरीद व्यवस्था पर कुठाराघात के रूप में देख रहा है। कुछ अन्य का मानना है कि इनसे मौजूदा कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) को नुकसान पहुंचेगा।
आंदोलनरत किसानों ने यह भी आरोप लगाया कि ये कानून बड़ी कंपनियों के लिए कृषि क्षेत्र के दरवाजे खोलने का तरीका हैं। पंजाब जैसे राज्य यह कहकर कानूनों का विरोध कर रहे हैं कि ये कृषि पर कानून बनाने की राज्य की शक्तियों का अतिक्रमण हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि प्रधानमंत्री के कदम को कृषि सुधारों के लिए झटका मानने से पहले अगले कुछ घटनाक्रमों को देखा जाना चाहिए।
इक्रियर में कृषि के लिए इन्फोसिस चेयर प्रोफेसर अशोक गुलाटी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘मेरा मानना है कि यह पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों को देखते हुए समर्पण के बजाय सोच-समझकर कदम वापस खींचने के समान है। जहां तक कृषि का सवाल है, इसमें अपने लंबी अवधि के औसत 3.5-4.0 प्रति वर्ष की दर से वृद्धि जारी रहेगी। लेकिन अगर कल विपक्ष सड़कों पर जमा होकर सभी मौजूदा सुधारों के खिलाफ जाना शुरू कर देता है तो एयर इंडिया के विनिवेश जैसे सभी फैसले दबाव में आ सकते हैं।’
प्रधानमंत्री की घोषणा के राजनीतिक नतीजे कुछ घंटों में ही सामने आ गए। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा कि हाल में गठित उनकी पार्टी राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा के साथ सीट बंटवारे पर चर्चा करने को तैयार है। गुलाटी ने कहा कि प्रधानमंत्री ने कृषि से संबंधित सभी मुददों पर विचार करने के लिए जिस समिति का सुझाव दिया है, वह किस तरह का रोडमैप सुझाती है, उस पर नजर बनी रहेगी। गुलाटी ने कहा, ‘मुझे नहींं लगता कि यह कृषि में सुधारों को एक झटका है, लेकिन हां, अगर कल कोई एमएसपी पर विधिक गारंटी देता है तो यह निश्चित रूप से पीछे जाने वाला कदम होगा।’
कुछ लोगों को लगता है कि कृषि कानून वापस लेने का निर्णय उचित है। उनके अनुसार सरकार को यह निर्णय पहले ही ले लेना चाहिए था। आईआईएम अहमदाबाद में सेंटर फॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर के अध्यक्ष प्रोफेसर सुखपाल सिंह ने कहा, ‘केंद्र को राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। अब यह तय हो गाय है कि ये तीनों कानून वापस लिए जाएंगे इसलिए राज्यों को कृषि विपणन में सार्थक सुधार लाना चाहिए। उन्हें कृषि क्षेत्र में केवल बड़े निवेश आकर्षित करने पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए बल्कि छोटे एवं पिछड़े किसानों के हितों की रक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए।’
सिंह ने कहा कि छोटे किसानों को उनके उत्पाद बेचने के लिए सीधी खरीद व्यवस्था, निजी मंडियों एवं अनुबंध आधारित कृषि आदि सुविधाएं देना ठीक था मगर जिस तरह केंद्र सरकार यह सब करना चाह रही थी वह एकतरफा था। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों की हितों की चर्चा किए बिना कंपनियों को खुली छूट दे रही थी। तीनों नए कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब में किसानों के इक्के-दुक्के प्रदर्शन दिखे थे मगर बाद में उनका विरोध देश के दूसरे हिस्सों में भी होने लगा। किसानों का प्रदर्शन पंजाब से निकल कर हरियाणा, पश्चिमी उत्तर पदेश और राजस्थान जैसे राज्यों तक भी पहुंच गया। पिछले वर्ष के अंत में किसानों का प्रदर्शन और तेज हो गया है और पंजाब से हजारों किसान राजधानी दिल्ली की तरफ कूच कर गए। राजधानी में प्रवेश की अनुमति नहीं मिलने पर किसानों ने रास्ते पर धरणा दे दिया।
केंद्र ने अपनी तरफ से विवाद सुलझाने की कोशिश की और विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों से 11वें दौर की चर्चा की और कृषि कानूनों के कुछ प्रावधान की पेशकश की। मगर किसान तीनों कृषि कानून पूरी तरह निस्त किए जाने की अपनी मांग पर अड़े रहे। इसके बाद 26 जनवरी 2021 को किसानों का प्रदर्शन उग्र हो गया है और वे पहले से निर्धारित ट्रैक्टर रैली के मार्ग से इतर राजधानी के दूसरे हिस्सों में प्रवेश करने लगे। इस क्रम में पुलिस के साथ उनकी मुठभेड़ हुई। इससे किसान आंदोलन कमजोर पड़ता दिखा मगर भारतीय किसान संघ के नेता राकेश टिकैत के भावुक बयान ने प्रदर्शनकारी किसानों का मनोबल फिर बढ़ा दिया।
इस बीच, उच्चतम न्यायालय ने मामले में हस्तक्षेप किया और तीनों कानूनों के अध्ययन और कोई समाधान खोजने के लिए एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञों की समिति गठित करने का निर्णय लिया। हालांकि किसानों ने समिति का गठन स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसमें वे लोग थे जिन्होंने किसी न किसी मंच से कृषि कानूनों का समर्थन किया था। मामला जस का तस रहा और किसानों ने आगामी 26 जनवरी को किसान आंदोलन के एक वर्ष पूरा होने की याद में देश में जगह-जगह कई कार्यक्रमों के आयोजना की तैयार कर रहे थे।
