देश भर में नकली और घटिया कीटनाशकों का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। हाल ही में किए गए एक शोध से पता चलता है कि इन नकली कीटनाशकों के एवज में किसानों के 1,200 करोड़ रुपये तो बर्बाद हो ही रहे हैं।
कीड़े-मकोड़ों की पर्याप्त रोकथाम न होने से तकरीबन 6,000 करोड़ रुपये की फसल भी तबाह हो रही है। ये निष्कर्ष खेती-किसानी में सही रसायनों और कीटनाशकों के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की दिशा में काम करने वाली संस्था एग्रोकेमिकल्स पॉलिसी ग्रुप (एपीजी) की एक रिपोर्ट के हैं। इस रिपोर्ट में जानने की कोशिश की गई है कि आखिर नकली कीटनाशकों का कारोबार और दुष्प्रभाव क्या हैं?
पिछले कई सालों के दौरान आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में हजारों कपास उत्पादक किसान खुदकुशी कर चुके हैं। एपीजी का कहना है कि इन आत्महत्याओं की मूल वजह फसल का खराब उत्पादन रहा है और इसके लिए नकली और घटिया कीटनाशक ही जिम्मेदार हैं।
एपीजी अध्यक्ष एस. कुमारास्वामी ने बताया कि ऐसे कीटनाशकों के ज्यादातर उत्पादन संयंत्र उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश के तटीय इलाके, कर्नाटक और पश्चिमी महाराष्ट्र में स्थित हैं। दिल्ली की बात करें तो अब इंदिरा मार्केट को इन नकली कीटनाशकों के गढ़ के रूप में जाना जा रहा है।
कुमारास्वामी ने बताया कि ऐसे कीटनाशक ज्यादातर अर्द्धविकसित राज्यों जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर के राज्यों में बेचे जा रहे हैं। हालांकि नासिक, पुणे, बेंगलूरू, गूंटूर और वारंगल के बाजार में भी इनकी उपस्थिति देखी जा रही है।
कुमारास्वामी ने बताया कि नकली कीटनाशक उत्पादक उन बहुराष्ट्रीय और देशी ब्रांडों की नकल करते हैं जो न केवल नामी होते हैं बल्कि महंगे भी। इन नामी उत्पादों की किसानों के बीच जबरदस्त दखल होती है लिहाजा मशहूर ब्रांड की नकल कर कारोबार जमाना बड़ा आसान होता है।
जानकारों के मुताबिक, इन नकली ब्रांडों में कुछ भी ऐसा नहीं होता जिससे कि फसल को कीड़े-मकोड़ों के चंगुल से निजात मिल सके। ऐसे उत्पादों में रसायनों की जगह टैल्कम पाउडर, खड़िया चूर्ण, कोई सॉल्वेंट या किरोसिन का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। इनके पैकेट पर जिन अवयवों का जिक्र होता है उनकी उपस्थिति तो बस नाम की ही होती है।
जाहिर है, ऐसे उत्पादों के इस्तेमाल से कीड़े-मकोड़ों का सफलतापूर्वक रोकथाम संभव नहीं हो पाती। यही नहीं, ऐसे कीटनाशकों की ज्यादातर बिक्री बगैर रसीद-पुर्जे के ही होती है। एपीजी के अनुमान के मुताबिक, इस वजह से 14 फीसदी उत्पाद कर के हिसाब से केंद्र सरकार को तकरीबन 168 करोड़ रुपये सालाना का घाटा उठाना पड़ रहा है।
फिलहाल, 4 फीसदी के वैट से वंचित रहने पर राज्य सरकार को भी 48 करोड़ रुपये सालाना का नुकसान हो रहा है। एपीजी का कहना है कि नकली कीटनाशक उत्पादकों पर कोई खास कानूनी और दंडात्मक कार्रवाई न होने से भी इस धंधे को खूब बढ़ावा मिल रहा है।
भारत में कीटनाशक उद्योग का नियंत्रण सेंट्रल इंसेक्टिसाइड्स बोर्ड (सीआईबी) के द्वारा होता है। इस नियामक संस्था का गठन इंसेक्टिसाइड्स एक्ट, 1968 के अधीन किया गया था। राज्यों के कृषि विभाग भी इस अधिनियम को क्रियान्वित करने में अपनी भूमिका अदा करते हैं। लाइसेंसों के वितरण, पर्यावरणीय मानदंडों की देखरेख, गुणवत्ता नियमन और वितरण का जिम्मा राज्य सरकारों के पास भी होता है।
कुमारास्वामी ने दुख जताते हुए कहा कि तमाम नियम-कानूनों और प्रशासनिक इंतजामों के बावजूद नकली रसायनों का उत्पादन और वितरण बड़ी आसानी से और बड़े पैमाने पर हो रहा है। उन्होंने कहा कि स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत से बड़ी आसानी से इस तरह के गैरकानूनी धंधे चलाए जा रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि यदि नकलची पकड़े भी जाते हैं तो रिश्वत दे कर प्रशासन के चंगुल से ये बच निकलते हैं।
कुमारास्वामी का सुझाव है कि फार्मास्यूटिकल उद्योग की ही तरह कीटनाशक निर्माताओं के लिए भी तमाम तरह की सतर्कताएं बरतना अनिवार्य कर देना चाहिए। यही नहीं, राज्य स्तर पर इन उत्पादों की जांच के लिए पुरानी पड़ चुकी प्रयोगशालाओं को तो पुनर्जीवित करना ही होगा, नए-नए उपकरण और तकनीकों को भी अपनाना पड़ेगा।
ऐसा किए बगैर नकली रसायनों के कारोबार पर अंकुश लगा पाना बड़ी मुश्किल है। दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में कीटनाशकों का बहुत ही कम इस्तेमाल होता है। भारत में दुनिया का जहां 17 फीसदी उपजाऊ जमीन है वहीं कीटनाशकों के इस्तेमाल के मामले में कुल वैश्विक उत्पादन का केवल 3 फीसदी ही यहां उपयोग हो रहा है।