आधे अधूरे सुधारों के कमजोर नतीजे | संजीव आहलूवालिया / April 02, 2018 | | | | |
देश में एक के बाद एक सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों पर नजर डालने के बजाय वक्त है नतीजों पर नजर डालने और जरूरी सवाल उठाने का। बता रहे हैं संजीव आहलूवालिया
राजनेताओं के पास यह सुविधा होती है कि वे अपने प्रदर्शन मानकों को चुन सकें। ऐसा इसलिए क्योंकि उनका काम बहुत विस्तृत है। कारोबारी जगत में अंशधारक जो भी खरीद बिक्री करते हैं वह पूरी तरह मौजूदा या भविष्य के लाभ से जुड़ी होती है। मौजूदा राजनीतिक मानकों में रोजगार प्रमुख है। यह भारतीय जनता पार्टी के लिए आत्मघाती भी हो सकता है क्योंकि फिलहाल रोजगार की समस्या का कोई हल नजर नहीं आ रहा है। रोजगार की समस्या से पहले सारा जोर आर्थिक वृद्घि पर रहता था। इस मोर्चे पर भी सरकार के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं। वहीं वृद्घि से पहले सन 1990 के दशक में गरीबी का खात्मा ऐसा मानक हुआ करता था। इससे पहले सन 1960 के दशक से लेकर सन 1970 के दशक तक पूरा जोर कृषि पर रहता था। देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता और अकाल से मुक्ति चाहता था। उससे भी पहले सन 1950 के दशक में औद्योगीकरण और बुनियादी ढांचे पर पूरा जोर था।
आज 70 साल बाद भी हम विनिर्माण के क्षेत्र में बहुत कम प्रतिस्पर्धा कर पा रहे हैं, हमारा बुनियादी विकास शिथिल है, कृषि उत्पादकता का स्तर कमतर है। देश की 40 फीसदी आबादी या तो गरीब है या फिर गरीबी के कगार पर। हमें अभी भी उच्च वृद्घि दर हासिल करनी है। बेरोजगारी का स्तर बहुत ऊंचा है और श्रम शक्ति में भागीदारी दर 48 फीसदी के निम्र स्तर पर है। महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी उपलब्धियों को खारिज कर दें लेकिन वक्त आ गया है कि हम एक के बाद एक सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों से परे जाकर उनके द्वारा हासिल उपलब्धियों पर दृष्टिï डालें और सवाल करें कि आखिर क्यों परिणाम हमेशा अनुमान से कमजोर रहे हैं?
पहली बात तो यह कि बड़े बदलाव अपने साथ विसंगति लेकर आते हैं। परंतु हम इस विसंगति की लागत को कम करने के मामले में विश्वसनीय तरीके नहीं अपना सके हैं। इसे बदलाव की अवधारणा को लेकर जोखिम बढ़ता है और सुधारों को लेकर जनता के मन में नकारात्मक धारणा बनती है। मिसाल के तौर पर जनहित में जमीन के अधिग्रहण का तरीका अत्यंत कमजोर है। जमीन को पहचानने, चिह्निïत करने और अधिग्रहण की प्रक्रिया को अंजाम देने की प्रक्रिया की निगरानी अत्यंत कमजोर है। समता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के क्रम में बहुत बड़ी तादाद में खनिज और संसाधन आदिवासी इलाकों में जमीन के नीचे दफन हैं। इन इलाकों के आदिवासी अपना पारंपरिक जीवन जीते रहना अधिक पसंद करते हैं, बजाय कि विकास की प्रक्रिया में भागीदारी करने के। हर संपत्ति मालिक या अधिग्रहणकर्ता के मन में यह आशंका रहती है कि कहीं वह ऐसी स्थिति में न उलझ जाए जो उसके नियंत्रण से परे हो।
दूसरी बात, बदलाव को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए एक शासन मॉडल की आवश्यकता है जो पुराने तरीके से लोगों या घटनाओं को निर्देश देने या उन पर नियंत्रण करने के बजाय आधुनिक रुख अपनाना चाहिए। हमारी शासन व्यवस्था अभी भी औपनिवेशिक विरासत को ढो रही है जहां बुर्जुआ वर्ग के लोग किसी न किसी तरह अपना काम करा लेते हैं। हाशिये के जो लोग प्रभावित होते हैं वे भागीदार नहीं बल्कि बाधा बनकर रह जाते हैं। एक बदलावपरक एजेंट के रूप में काम करने की न तो संस्थागत क्षमता है और न ही चाह। जब मशविरा देने जैसी विशिष्टï प्रक्रिया तक मुहैया कराई जाती है तब भी इस अवसर का लाभ उठाकर प्रक्रिया की प्रतिपुष्टिï करने के बजाय मामला केवल खानापूरी तक ही सिमट जाता है। पूरी कवायद आगे की राह तलाशने तक सिमट कर रह जाती है।
लगभग हर जगह कार्यपालिक विशेषाधिकार के पारदर्शी उपयोग पर रोक लगा दी गई है लेकिन इससे कोई मदद नहीं मिलती। यह रोक इसलिए लगी क्योंकि अतीत में इस अधिकार का दुरुपयोग होता रहा है। बैंकों के फंसे हुए कर्ज की बात करें तो सुरक्षित ऋण मुहैया कराने संबंधी नियमों के चलते शायद ही किसी प्रबंधक को यह इजाजत हो कि वह जमानत के आधार पर अपने विवेक का इस्तेमाल करके ऋण देने की मंजूरी दे सके। पूरा ध्यान सुरक्षित ऋण के लक्ष्य हासिल करने पर रहता है, बजाय कि आर्थिक मूल्यवर्धन करने के। इसके चलते परियोजनाओं को अधिक आकर्षक बताया जाता है ताकि परिसंपत्ति का सांकेतिक मूल्य बढ़ सके। यह ऋणदाता और कर्जदार दोनों के बीच आपसी फायदे की नीति है। यह परियोजना की व्यवहार्यता को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है और कर्जदार की ऋण चुकाने की क्षमता को भी।
तीसरी बात, हम उपमहाद्वीप के स्तर पर तत्काल बदलाव लाने के लालच में फंस गए हैं जबकि हम धीरे-धीरे बदलाव के साथ आगे बढ़ सकते थे। भारत बहुलतावादी देश है। हमारे लिए यूरोप का राजनीतिक मॉडल होना चाहिए, न कि चीन का। देश की विविधतापूर्ण राजनीतिक विचारधाराओं के लिए बहुपक्षीय राजनीति की पर्याप्त गुंजाइश चाहिए। हमारा राजनीतिक ढांचा क्रियान्वयन की दृष्टिï से लचीला होना चाहिए लेकिन सार्वजनिक प्रबंधन के लक्ष्य और सिद्घांतों के मामले में निर्देशात्मक। हमारा संविधान उन चुनौतियों को दर्शाता है जो आजादी के समय हमारे सामने थीं न कि आज की। एकीकरण को लेकर उत्पन्न आशंकाएं एक केंद्रीकृत संविधान का निर्माण करती हैं। इसी के चलते केंद्र सरकार ने सन 1959 में केरल की ईएमएस नंबूदरीपाद की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया था। राज्य के राज्यपाल ने केंद्र सरकार की सलाह पर काम किया यह भी एक केंद्रीकृत विशेषता है। क्षमता संबंधी सीमाओं के कारण केंद्र और राज्य के बीच ऐसा बंटवारा देखने को मिलता है। केंद्र पर बोझ ज्यादा है। स्थानीय सरकारें तो सन 1993 के संविधान संशोधन के बाद बनीं।
अंतरसरकारी जनादेश सरकारों को अपनी सीमा में काम करने पर मजबूर करेंगे। जरा सोचिए देश के सांसदों का निर्वाचन नालियां बनवाकर और विधायकों को कृषि उपज का अधिक मूल्य दिलाने के नाम पर या राज्य के अलग झंडे की घोषणा के नाम पर होता है। ये सारी बातें उनके दायरे के बाहर हैं। अधिकारियों को उस सरकार के स्तर पर नियुक्त किया जाना चाहिए जिसकी वे सेवा करते हैं। सरकार के हर स्तर पर राजकोषीय संसाधनों को ऐसे सुसंगत बनाया जाना चाहिए कि वह हर स्तर के क्रियान्वयन के अनुकूल हो। जब तक ढांचागत बदलाव नहीं आता है सरकार का प्रदर्शन कमजोर बना रहेगा। बदलाव और लागत कम करने के प्रति संवेदनशीलता, नीचे उभरे मानकों का क्रियान्वयन जो वास्तविक मूल्यवर्धन के लिए काम कर रहे हों, वे सुधारों में 100 फीसदी प्रदर्शन कर सकते हैं।
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