प्रत्यक्ष कर संहिता पर पुनर्विचार | पार्थसारथि शोम / March 26, 2018 | | | | |
देश में प्रत्यक्ष कर संहिता पर नए सिरे से विचार विमर्श हो रहा है। ऐसे में नकारात्मक इक्विटी प्रभाव और जटिलताओं को समाप्त करने पर विचार किया जाना चाहिए। विस्तार से बता रहे हैं पार्थसारथि शोम
प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) पर पुनर्विचार करने की कवायद चल रही है। ऐसे में मैं डीटीसी 09 और डीटीसी 10 की तुलना करना जारी रखूंगा। बल्कि आज मैं इन दोनों से इतर उन चुनिंदा चुनौतियों के बारे में भी बात करूंगा जिनसे इन दोनों संहिताओं में पर्याप्त ढंग से नहीं निबटा गया है और जिन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
संपदा कर: डीटीसी 09 में सभी परिसंपत्तियों पर संपदा कर वसूलने का प्रस्ताव रखा गया था। इसमें वित्तीय परिसंपत्तियां भी शामिल थीं। कानून को सहज और प्रवर्तन योग्य बनाना था। इसके तहत 50 करोड़ रुपये की उच्चतम सीमा और 0.25 फीसदी की कम दर रखने का निश्चय किया गया था। डीटीसी 10 के प्रस्तावों को मौजूदा संपदा कर अधिनियम के मुताबिक ही रखा गया था। इसमें देश के बाहर स्थित कुछ वित्तीय परिसंपत्तियों को लेकर कुछ प्रावधान शामिल किए गए। बाद में इस कर को ही समाप्त कर दिया गया। भारत जैसे देश में जहां 0.001 फीसदी धनाढ्यों की संपत्ति में सबसे तेज गति से इजाफा हो रहा है, वहां संपदा पर कर लगाना समता स्थापित करने के लिए अनिवार्य है।
अगर इसे ठीक तरह से तैयार और क्रियान्वित किया जाए तो इससे राजस्व भी अर्जित हो सकता है। डीटीसी 09 में शुद्घ संपदा की जो परिभाषा दी गई है उसे बहाल किया जाना चाहिए। इसमें अचल संपत्ति और वित्तीय संपत्तियों को शामिल किया जाना चाहिए। 50 से 100 करोड़ रुपये तक के लिए 0.25 फीसदी की कर दर तय की जानी चाहिए और 100 करोड़ रुपये से ऊपर 0.5 फीसदी की कर दर। इसे इसलिए भी कम रखा जाना चाहिए ताकि यह अनुपालन और राजस्व संग्रह के मोर्चे पर सफल हो।
आवासीय परिसंपत्ति से आय पर कराधान-अनुमान और छूट- और ब्याज कटौती: डीटीसी 09 में सकल किराये को अनुबंधित किराये में उच्च मानने का प्रस्ताव रखा गया था। स्थानीय प्रशासन द्वारा तय मूल्य या परिसंपत्ति निर्माण की लागत के अनुसार इसे 6 फीसदी सालाना तय किया गया। डीटीसी 10 में सकल किराया, प्राप्त वास्तविक किराया था न कि अनुमान के आधार पर तय। आय कर अधिनियम इस अवधारणा का इस्तेमाल सांकेतिक किराये के रूप में करता है।
आयकर अधिनियम किसी व्यक्ति के स्वामित्व वाले एक मकान को आय कर से मुक्त करता है। दूसरे तथा उससे अधिक आवासों पर कर लगाया जाता है और पहले आवास के मामले में अगर व्यक्ति खुद रह रहा है तो 2 लाख रुपये तक की रियायत प्रदान की जाती है। इससे दोहरी कटौती होती है। इतना ही नहीं आय और अचल संपत्ति स्वामित्व में कराधान का एक असमान ढांचा तैयार होता है। यानी खुद के रहवास वाले एक मकान को रियायत दी जाती है, चाहे उसका मूल्य जो हो, जबकि मझोली आय वाले उन मकान मालिकों पर कर लगेगा जो बाद में अतिरिक्त मकान खरीदेंगे। इसके अतिरिक्त यह एक विशाल आवास पर अनुचित रूप से रियायत की इजाजत देता है जबकि दूसरे छोटे आवास पर नहीं।
ऐसे में एक मौद्रिक सीमा तय करने का सुझाव दिया गया है जिसके परे खुद के आवास को भी आयकर के दायरे में माना जाए। यह सीमा 5 करोड़ रुपये तक हो सकती है। दूसरी बात, जिस परिसंपत्ति पर संबंधित व्यक्ति खुद रह रहा है उसमें कटौती नहीं करनी चाहिए ताकि दोहरी कटौती की स्थिति न बने। अगर उक्त घर में संबंधित व्यक्ति खुद नहीं रह रहा है तो भी 2 लाख रुपये तक की कटौती की ही इजाजत होनी चाहिए। इसमें समय के साथ मुद्रास्फीति का समायोजन भी होना चाहिए। संपदा कर जिसे फिलहाल समाप्त कर दिया गया है, उसे 5 करोड़ रुपये के आकलन से अलग रखना चाहिए ताकि आय कर और संपदा कर के आकलन में निरंतरता रखी जा सके।
आय कर दर ढांचे में बदलाव: अंतरराष्ट्र्रीय सूचकांक से पता चलता है कि आय के वितरण में असमानता बढ़ी है। व्यय कर की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी और जीएसटी की शुरुआत के चलते इसकी प्रभावी प्रगति कम होगी। इसलिए किसी भी नई डीटीसी को 1-3 करोड़ रुपये के लिए 35 फीसदी और 3 करोड़ रुपये से अधिक के लिए 40 फीसदी की नई दर पेश की जानी चाहिए। फिलहाल 6 करोड़ रुपये से अधिक के लिए 45 फीसदी की दर भी उचित है।
एक बात तो यह है कि पेशेवरों के दूरी बनाने की दलील में दम नहीं है क्योंकि अन्य समतुल्य देशों में दरें भारत से ज्यादा हैं। दूसरी बात, 35, 40 और 45 फीसदी की दर वहन करने वालों में से किसी की अनुचित बोझ की प्रतिक्रिया से निपटने के लिए कर प्रशासन को अपने प्रयास बढ़ाने चाहिए ताकि कर अनुपालन बेहतर हो और करदाताओं की तादाद बढ़ सके। खासतौर पर स्वरोजगार वाले लोगों में। केवल तभी उन लोगों की तादाद में इजाफा संभव हो सकेगा जो एक करोड़ रुपये से ऊपर की कर योग्य आय घोषित करते हैं।
कर्मचारियों को स्वरोजगारशुदा लोगों से अलग करना: स्वरोजगारशुदा लोगों को कर दायरे में लाने के लिए उन्हें वेतनभोगियों से अलग किया जा सकता है। फिलहाल भारत में वेतनभोगी और स्वरोजगारशुदा लोग एक ही कर ढांचे में आते हैं। स्वरोजगार शुदा लोगों के लिए अलग कर ढांचे पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि वेतनभोगियों की तुलना में उनको आय कमाने में अधिक जोखिम भी उठाना पड़ता है।
इसके विरुद्घ एक दलील यह हो सकती है कि स्वरोजगार करने वाले पहले ही प्राथमिकता पाते हैं क्योंकि उनके शुद्घ मुनाफे पर कर लगता है जबकि वेतनभोगियों के कुल वेतन पर। परंतु ध्यान रहे कि मानक कटौती को बहाल कर दिया गया है। इसके अलावा स्वरोजगार करने वाले कई लोग अब जीएसटी के दायरे में आ चुके हैं क्योंकि सेवाओं पर अब राज्य के स्तर पर अलग से कर लग रहा है। कर का ढांचा भले ही ऐसा है कि उसका अंतिम बोझ उपभोक्ताओं पर पड़े लेकिन स्वरोजगार करने वाले अक्सर इस बारे में कर विशेषज्ञों की तरह नहीं सोचते। इसके अलावा जीएसटी के शुरुआती दौर में उनकी अनुपालन लागत काफी रही है।
अनुपालन लागत में कमी: जीएसटी और आयकर दोनों में अनुपालन बढ़ाने की धारणा है। हाल में अपेक्षाकृत छोटे कारोबारियों के लिए भी बैलेंस शीट की सूचना देना जरूरी किया गया। यहां निजता के अधिकार की बात करें तो यूरोपीय कर प्रशासन बिना मानवाधिकार के यूरोपीय समझौते के कदमों को श्रेय दिए उसका अनुपालन करता है। वे मान कर चलते हैं कि कोई जानकारी सामने आना प्रथम दृष्टïया उस अधिकार का उल्लंघन होगा। भारत में स्थिति इससे अलग है।
बहरहाल, डीटीसी 09 में कई अन्य नवाचारी पहलू शामिल हैं। इसमें वित्तीय क्षेत्र से संबंधित पहलुओं को बरकरार रखा जाना चाहिए। इसके अलावा नोटबंदी के कारण गतिविधियों में आए धीमेपन के बीच बैंक नकदी लेनदेन कर (बीसीटीटी) को भी लागू किया जाना चाहिए।
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