बैंक में बतौर निवेशक हो सरकार की भूमिका | श्यामल मजूमदार / March 19, 2018 | | | | |
सरकारी बैंकों में अपने नियंत्रण का एक बड़ा हिस्सा बेचने पर विचार करने से पूर्व सरकार को उनकी हालत सुधारने के साथ उन्हें वित्तीय रूप से तंदुरुस्त बनाना होगा। बता रहे हैं श्यामल मजूमदार
पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) में एक बड़े फर्जीवाड़े के बाद इन दिनों सरकारी बैंकों के निजीकरण की चर्चाएं तेज हो गई हैं। सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं कि क्या सरकार इन चर्चाओं की तरफ ध्यान देगी? पहले भी ऐसे मांगें उठ चुकी हैं, लेकिन सरकार ने इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया और अब इस बार भी कुछ ऐसा ही होगा, खासकर तब जब आम चुनाव में महज एक साल शेष रह गया है। नरसिम्हन समिति के सुझावों के बाद निजीकरण के मोर्चे पर कुछ किए जाने की जरूरत संबंधी चर्चाएं होती रही हैं। समिति ने कहा है कि अगर कमजोर बैंक अपने दम पर कारोबार नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें बंद कर देना चाहिए।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी सरकारी बैंकों के आपस मेंविलय की हिमायत की है और हाल में पेश आर्थिक समीक्षा में निजीकरण की सिफारिश कर सरकार एक कदम और आगे बढ़ाती दिखी है। सरकारी बैंकों की दिक्कतें दूर करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य कुछ 'रचनात्मक समाधान' की बात करते रहे हैं। आचार्य ने कहा कि सरकारी बैंकों को दी जाने वाली पूंजी से सरकार पर पडऩे वाले बोझ में कमी लाने और राजकोषीय मजबूती के लिए कुछ बैंकों का नियंत्रण निजी हाथों में देने की जरूरत है। उन्होंने बैंकों के आपस में विलय की भी बात कही है।
निजीकरण की चर्चाओं के बाद यह भी पूछा जाएगा कि आखिर मुश्किलों में फंसे बैंकों का नियंत्रण लेने की जहमत कौन उठाएगा? साथ ही, यह जानते हुए कि निजीकरण के पक्ष में हवा बन रही है, क्या सरकार राजनीतिक रूप से जोखिम भरी और पूरी तरह अस्वीकार्य यह पहल कर सकती है या करेगी? यह उद्योगों को कर्मचारियों को नौकरी पर रखने और उन्हें निकालने की अनुमति देने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन करने जैसा ही है। लगभग सभी लोगों का कहना है कि यह कदम उठाए जाने की जरूरत है, लेकिन किसी भी सरकार के पास ऐसा करने का राजनीतिक साहस नहीं है। सरकारी बैंकों के निजीकरण के बारे में सोचने से पहले उनकी हालत सुधारने और इन्हें दोबारा तंदुरुस्त बनाए जाने की दरकार है। इस मोर्चे पर भी सुझावों की कोई कमी नहीं है। हाल में ही जे पी नायक समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह बात कही है। आरबीआई ने सरकारी बैंकों के बोर्ड संचालन की समीक्षा के लिए इस समिति का गठन किया था।
नायक समिति की कुछ रिपोर्ट का क्रियान्वयन राजनीतिक तौर पर करना मुश्किल है। मिसाल के तौर पर समिति ने खस्ताहाल करार दिए गए बैंकों में प्राइवेट इक्विटी और सॉवरिन वेल्थ फंडों को 40 प्रतिशत तक नियंत्रण वाली हिस्सेदारी लेने या सरकारी बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी कम कर 50 प्रतिशत से कम करने के सुझाव दिया है। हालांकि समिति की कुछ दूसरी सिफारिशों पर सरकार की चुप्पी समझ से परे है। दरअसल इन सुझावों के क्रियान्वयन से सरकारी बैंकों की संचालन संरचना बड़े स्तर पर सुधर सकती है। उदाहरण के लिए समिति के अनुसार सरकारी बैंकों का दोहरा नियमन (वित्त मंत्रालय और आरबीआई द्वारा), बैंकों में नेतृत्व स्तर पर नियुक्ति की अल्प अवधि, कम मुआवजा, निगरानी और सूचना का अधिकार का दायरा आदि त्रुटियां तेजी से समाप्त या इनमें काफी हद तक कमी की जानी चाहिए। समिति के अनुसार ऐसा करने से सरकारी बैंकों की प्रतिस्पद्र्धी क्षमता बरकरार रहेगी।
समिति ने सरकार की भूमिका एक निवेशक के रूप में रखने का महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया है। कई देशों में यह प्रयोग सफलतापूर्वक किया गया है। उदाहरण के लिए सिंगापुर सरकार का डीबीएस पर टेमासेक के जरिये नियंत्रण है। डीबीएस के निदेशकमंडल को इतने अधिकार दिए गए हैं कि सिंगापुर सरकार या टेमासेक की मुख्य कार्याधिकारियों की नियुक्ति में कोई भूमिका नहीं है। ब्रिटेन सरकार का यूके फाइनैंशियल इन्वेस्टमेंट्स (यूकेएफआई) के जरिये आरबीएस और लॉयड्स बैंक पर नियंत्रण है। 2008 के वित्तीय संकट के बाद इन दोनों बैंकों को संकट से निकालने के लिए सरकारी पहल के रूप में यूकेएफआई का गठन हुआ था। यूके ट्रेजरी इसका प्रमुख शेयरधारक है।
दोनों बैंकों को पूर्ण अधिकार दिए गए हैं। यूकेएफआई बैंक और राजनीतिज्ञों के बीच एक संतुलन के तौर पर काम करता है और एक समझदार शेयरधारक की तरह व्यवहार करता है। इसके अलावा भी कई उदाहरण हैं। बेल्जियम की सरकार संकटग्रस्त फोर्टिस और डेक्सिया दो बैंकों का नियंत्रण एक होल्डिंग कंपनी एफपीआईएम के जरिये करती है। इन सभी उदाहरणों में एक निवेशक के तौर पर सरकार अपनी भूमिका एक मध्स्थ निवेश कंपनी के माध्यम से निभाती है। इस लिहाज से बैंकों में हिस्सेदारी रखने के लिए समिति के सुझावों के आधार पर एक बैंक इन्वेस्टमेंट कंपनी (बीआईसी) की स्थापना नहीं करने की सरकार के पास कोई वजह नजर नहीं आ रही है। फिलहाल यह हिस्सेदारी सीधे सरकार रखती है। सच्चाई तो यह है कि सरकार ने एक छोड़कर समिति की सभी सिफारिशें नजरअंदाज कर दी हैं।
सरकार ने केवल बैंक बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) पर समिति की सिफारिशों पर ध्यान दिया। अब बीबीबी भी अधिकारहीन हो गया है और जिस उत्साह के साथ इसका गठन हुआ था, उसकी फजीहत हुई है। बीबीबी को बैंकों में शीर्ष पदों पर नियुक्ति पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया गया है और इस पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार वित्त मंत्रालय के पास ही है। इसके अलावा फंसे कर्जों के निपटारे, सरकारी बैंकों के आपस में विलय और उनके संचालन में बीबीबी की कोई भूमिका नहीं है। पीएनबी फर्जीवाड़े ने खतरे की घंटी बजाई है। अब समय की मांग है कि सरकार को सरकारी बैंकों के संचालन से पर्याप्त दूरी बरतनी चाहिए। लचर संचालन और मनमानी निर्णय प्रक्रिया से निपटने में अगह हम गंभीर हैं तो सरकारी बैंकों में सरकार की भूमिका सीमित करने के लिए बीआईसी की स्थापना की जानी चाहिए।
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