पकौड़े के बहाने रोजगार के बदलते स्वरूप पर एक नजर | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / February 13, 2018 | | | | |
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पकौड़ा वाले बयान को लेकर काफी मजाक बनाया जा चुका है। कुछ लोग तो प्रधानमंत्री पकौड़ा रोजगार योजना शुरू करने जैसे व्यंग्य भी कर रहे हैं। लेकिन यह पूरी चर्चा नासमझी भरी है। यह सच है कि प्रधानमंत्री ने पकौड़े के तौर पर एक गलत उदाहरण दिया था लेकिन उठाया गया मुद्दा काफी गंभीर है। वह पकौड़े के बहाने किसी दूसरे के लिए काम करने और स्वरोजगार में फर्क को रेखांकित करना चाह रहे थे। इन दोनों समूहों में फर्क इतना है कि आयकर रिटर्न के लिए फॉर्म 16 और फॉर्म 16ए भरना पड़ता है।
ऐसे में जब अर्थशास्त्री रोजगार सृजन के संदर्भ में मोदी सरकार की सफलता को परखने की कोशिश करते हैं तो यह एक तरह से एक आधुनिक शहर में परिवहन सघनता को जांचने के लिए सड़कों पर फैली घोड़े की लीद को पैमाना मानने जैसा है जबकि अब परिवहन का साधन गाडिय़ां बन चुकी हैं। यह कुछ वैसा ही है जैसे हॉकी या टेनिस के मुकाबले की गुणवत्ता का आकलन हम इस आधार पर नहीं करते हैं कि उसमें कितने रन नहीं बने या कितने प्वाइंट नहीं बनाए जा सके। ऐसी स्थिति में अर्थशास्त्रियों को भी नींद से जग जाना चाहिए और जारी मैच पर नजर डालनी चाहिए। खास बात यह है कि रोजगार के मामले में अर्थशास्त्री पुराने संकेतकों का ही रुख कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि ये अर्थशास्त्री अर्थव्यवस्था के बारे में भ्रामक और गलत निष्कर्षों तक पहुंच रहे हैं। विपक्षी दलों के नेता इस आकलन को हाथोंहाथ ले रहे हैं और कह रहे हैं कि मोदी ने देश को एक अनुपयोगी सरकार दी है। लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो वे भी कोई बेहतर नतीजा नहीं दे पाएंगे। मोदी को भी इस बात का अहसास हो चुका है।
सवाल यह है कि रोजगार के मामले में क्या बदलाव हुए हैं? आयकर रिटर्न का फॉर्म 16 भरने वाले लोग नौकरीपेशा होते हैं जो काम के निश्चित घंटे देकर एक निश्चित आय हासिल करते हैं। यह बीसवीं सदी की सोच का नतीजा है जिसमें कर्मचारी को निष्पादन के बजाय कार्य के घंटों के लिए वेतन मिलता है। इसी तरह आय वितरण और असमानता जैसी राजनीतिक एवं फैशनपरक आर्थिक चिंताएं भी रही हैं। इन चिंताओं ने ही फॉर्म 16 वाले रोजगार में उफान भरने का काम किया है। सच तो यह है कि इन सभी बिंदुओं का एक राजनीतिक संदर्भ भी रहा है और अब वह बदल चुका है। फॉर्म 16 भरने वाले नौकरीपेशा रोजगार का सीधा-सा मकसद है कि अमुक व्यक्ति की आय का प्रवाह सुगम करना ताकि उसे मासिक आधार पर एक रकम मिलती रहे और 35-40 साल तक वह उससे जुड़ा रहे। सामाजिक स्थायित्व के लिए इसे बेहद जरूरी माना जाता रहा है। लेकिन 1917 के पहले ऐसा नहीं होता था। उस साल रूस में क्रांति होने के बाद दुनिया भर में साम्यवाद का खतरा बढ़ गया जिसके बाद पूंजीवादियों के समर्थक राजनीतिक दलों ने रोजगार में स्थिरता को अहमियत देने की बात शुरू कर दी। बीसवीं सदी के पहले साम्यवाद का खतरा नहीं था और रोजगार की अवधारणा भी काफी अलग थी। राजनीति में स्थायित्व भरे रोजगार की अवधारणा तो करीब दो दशक बाद जे एम कीन्स लेकर आए।
लेकिन 1990 में सोवियत संघ के पतन के बाद एक विचारधारा के तौर पर साम्यवाद का वजूद समाप्त-प्राय हो गया। लिहाजा 21वीं सदी में 20वीं सदी की फॉर्म 16 वाली रोजगार अवधारणा भी खत्म हो रही है। सच तो यह है कि फॉर्म 16 रोजगार की अवधारणा लगभग खत्म हो चुकी है। अमेरिका में इसे 'गिग इकॉनमी' कहा जाता है (जिसमें एक निश्चित अवधि के लिए प्रोजेक्ट आधारित रोजगार मिलता है)। लेकिन सच तो यह है कि गिग इकॉनमी बेहतर आर्थिक नतीजों के लिए कहीं अधिक मुफीद होती है। उसमें सरकारों के लिए लक्षित चर नौकरियों के बजाय काम हो जाता है जिसका मतलब है कि वेतन के बजाय आय महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस स्थिति में सरकार की कोशिश ऐसा माहौल बनाने की होती है जिसमें लोग अधिक आय अर्जित कर सकें।
भारत में भी कुछ ऐसा ही होना चाहिए। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने उस दिन मुहावरे की शक्ल में कुछ यही बात कहने की कोशिश की थी। आखिर इसके फायदे क्या होंगे? बीसवीं सदी की सोच हावी होने के चलते लोग यह भूल चुके हैं कि आर्थिक नजरिये से एक परिवार की सालाना आय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती है। आय वृद्धि का माहौल पैदा करना राजनीतिक प्रतिरूप होता है। संभव है कि एक परिवार छह महीनों तक कोई कमाई न करे, फिर भी उसकी सालाना आय अधिक हो सकती है। कृषि क्षेत्र में तो ऐसा ही होता है। किसानों को साल के चार-पांच महीनों में किए गए कार्यों की ही कमाई होती है। पेशेवरों की भी आय का कोई सुनिश्चित प्रवाह नहीं होता है फिर भी वे सालाना स्तर पर अच्छी-खासी कमाई कर लेते हैं। ऐसे और भी कई उदाहरण हो सकते हैं। बाजार के लचीला होने की वजह से ऐसा होता है। और जैसा कि हम जानते हैं, नमनीय बाजार अधिक उत्पादकता के लिए अपरिहार्य होते हैं। फॉर्म 16 वाला रोजगार शायद ही प्रच्छन्न बेरोजगार को एक दफ्तर या कारखाने में कार्यरत श्रम के तौर पर परिवर्तित करता है।
मुझे असाधारण लगने वाली बात यह है कि उत्पादकता बढ़ाने की मांग करने वाले लोग ही कठोर बाजार कारकों की वकालत करते हैं। लेकिन यह बात अपनी जगह कायम है कि एक गैर-निष्पादित परिसंपत्ति और एक स्थायी कर्मचारी में कोई फर्क नहीं होता है। उनके प्रतिफल काल्पनिक (नोशनल) ही होते हैं। इस मामले में सरकारी कर्मचारी तो एकदम सटीक उदाहरण पेश करते हैं। वैसे मैं यह बताना चाहूंगा कि 21 साल पहले मैंने जानबूझकर खुद को फॉर्म 16 के बजाय फॉर्म 16ए वाले समूह में शामिल कर लिया था। मैंने अपने समय के बजाय अपनी उत्पादकता के आधार पर कमाई करने का फैसला किया था।
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