कर बनाम व्यय | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / February 09, 2018 | | | | |
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के पांच बजटों के मूल में एक विरोधाभास है। करदाताओं की तादाद बढऩे के साथ कर की राशि में इजाफा हो रहा है लेकिन सरकारी व्यय में बहुत कम वृद्घि हुई है। यह वृद्घि अर्थव्यवस्था की वृद्घि से कदमताल करने में नाकाम रही है। यही वजह है कि सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों के लिए किया जाने वाला आवंटन मुद्रास्फीति की तुलना में पिछड़ रहा है। बजट से जुड़ी असली समस्या करों की नहीं बल्कि अतीत में किए गए सरकारी निवेश पर कमजोर प्रतिफल की है। जी हां, सरकारी क्षेत्र।
जरा आंकड़ों पर नजर डालते हैं। मोदी के अंतिम बजट में हुए आय कर संग्रह की तुलना अगर मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम बजट से की जाए तो अनुमान है कि इसमें 118 फीसदी का इजाफा और सकल कर राजस्व दोगुना हो जाएगा। दोनों ने आर्थिक वृद्घि को पीछे छोड़ दिया, इन पांच सालों में इसके नॉमिनल संदर्भ (यानी वास्तविक वृद्घि में मुद्रास्फीति को जोड़ते हुए) में 67 फीसदी रहने की उम्मीद है। ऐसा राज्यों को होने वाले कर हस्तांतरण में बढ़ोतरी होने की वजह से है। इन पांच सालों में इसमें 145 फीसदी की जबरदस्त दर से इजाफा होने की बात कही जा रही है। केंद्र का शुद्घ कर राजस्व काफी धीमी गति से बढ़ा लेकिन फिर भी 81 फीसदी की इसकी दर बहुत बुरी नहीं है। केंद्र सरकार का व्यय इस कमतर आंकड़े को भी नहीं पा सका और उसमें केवल 57 फीसदी का इजाफा हुआ। जबकि इसी अवधि में जीडीपी की वृद्घि दर 67 फीसदी रही। कर के रूप में और अधिक धन जमा किया जा रहा है लेकिन विकसित होती अर्थव्यवस्था की तुलना में सरकारी व्यय कम हो रहा है।
दरअसल समस्या उन मदों में है जिन्हें गैर कर राजस्व और पूंजीगत प्राप्तियों के रूप में एक साथ मिला दिया गया है। पांच सालों में उनमें बमुश्किल 20 फीसदी की दर से वृद्घि होनी है। इस समूह में सबसे अहम है सरकार द्वारा दिए गए ऋण पर मिलने वाला ब्याज, विनिवेश से प्राप्तियां और दूरसंचार कंपनियों को रेडियो स्पेक्ट्रम की बिक्री तथा घाटे को कम करने के लिए ली जाने वाली उधारी। यहां जिस एकमात्र चीज में कमी आनी चाहिए थी वह था स्पेक्ट्रम से आने वाला राजस्व। अगर सरकार को शिक्षा जैसे कम फंडिंग वाले क्षेत्रों के लिए उचित बजट तैयार करना है, अगर उसे स्वास्थ्य बीमा जैसी योजना के लिए धन का प्रावधान करना है और मूल बुनियादी क्षेत्र में निवेश तेज करना है तो गैर कर राजस्व क्षेत्र में वृद्घि आवश्यक है। करीब 85 ऐसे कार्यक्रम हैं जिन्हें सरकार ने मूलभूत, मूलभूत में भी मूल और बड़े कार्यक्रम घोषित कर रखा है। इनमें ग्रामीण रोजगार गारंटी, राजमार्ग, फसल बीमा, स्वच्छ भारत और शहरी मेट्रो परियोजनाएं शामिल हैं। इन्हें मिलने वाला आवंटन केंद्रीय बजट का बमुश्किल पांचवां हिस्सा होता है। शेष राशि सरकारी प्रतिष्ठïानों के व्यय, रक्षा, ब्याज भुगतान, पेंशन और सब्सिडी आदि में खर्च हो जाती है। इनमें भी रक्षा और सब्सिडी हाल के वर्षों में कम हुई हैं।
बीती चौथाई सदी में अनियमित कर सुधारों ने एक ऐसा ढांचा तैयार किया है जो व्यापक तौर पर वैसा ही है जैसा होना चाहिए। बस कॉर्पोरेट कर के कुछ बचे हुए सुधारों को अंजाम देने की अवश्यकता है। इसके अलावा वस्तु एवं सेवा कर की दरों को तार्किक बनाने और तमाम परिसंपत्ति वर्ग में पूंजीगत लाभ कर को समरूप बनाने की जरूरत है। यह सारा काम चरणबद्घ ढंग से आराम से पूरा किया जा सकता है। भारत जैसे प्रति व्यक्ति आय के स्तर वाले देश के लिए जीडीपी के अनुपात के रूप में कर राजस्व से उम्मीद की जा सकती है। निश्चित तौर पर निश्चित तौर पर इसमें इजाफा हुआ है और यह सन 2013-14 के 10.1 फीसदी से बढ़कर अगले वर्ष 12.1 फीसदी हो सकता है जो शायद अब तक का सबसे ऊंचा स्तर होगा। नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर ने भी इसमें मदद की है।
एक अहम काम सरकारी परिसंपत्तियों के पूरे पोर्टफोलियो की समीक्षा करने का है। इसमें प्रमुख तौर पर कंपनियां हैं लेकिन उनके साथ-साथ राजमार्ग और अन्य बुनियादी परियोजनाएं और जमीन भी इसमें शामिल हैं। यह सब एक महत्त्वाकांक्षी और बहुफलकीय निजीकरण कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए ताकि सरकारी पोर्टफोलियो का लाभ उठाया जा सके। इनकी बिक्री से आने वाले धन का उपयोग बुनियादी क्षेत्र की नई परियोजनाओं तथा अन्य परिसंपत्तियों में निवेश के लिए किया जाना चाहिए। खराब प्रदर्शन कर रही या आसानी से बेची जा सकने वाली परिसंपत्तियों की मदद से प्रमुख कार्यक्रमों के लिए और संपत्ति जुटाई जा सकती है।
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