प्रिंट मीडिया के प्रदर्शन का पैमाना आपसी राजनीति का शिकार | मीडिया मंत्र | | वनिता कोहली-खांडेकर / February 02, 2018 | | | | |
पिछले सप्ताह भेजे गए एक मेल में यह कहा गया था कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) के दावे को हिंदुस्तान टाइम्स (एचटी) खारिज करता है'। इसमें दावा किया गया था कि औसत प्रति पाठक संख्या (एआईआर) के मुताबिक दिल्ली एनसीआर और मुंबई के संयुक्त बाजार में हिंदुस्तान टाइम्स ही सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अखबार है। इसके लिए गत दिनों जारी इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़ों का हवाला दिया गया। विज्ञापन देने वाले एचटी के मुताबिक दिल्ली में उसका एआईआर 16.7 लाख है जबकि टीओआई का एआईआर 11.9 लाख है। मुंबई और दिल्ली के साझे बाजार की बात करें तो एचटी का एआईआर 24.3 लाख और टीओआई का 22.4 लाख है। लेकिन इस विज्ञापन में एचटी ने मुंबई बाजार के अपने एआईआर का अलग से खुलासा नहीं किया। लेकिन आंकड़ों के जोड़-घटाने से यह पता लग जाता है कि एचटी जहां दिल्ली-एनसीआर बाजार में शीर्ष पर है वहीं मुंबई में टीओआई को बढ़त मिली हुई है।
दरअसल एचटी का यह विज्ञापन आईआरएस 2017 के साथ जुड़ी मुश्किलों को बयां करने वाला एक माध्यम है। करीब 1,262 अरब करोड़ रुपये के आकार वाले भारतीय मीडिया एवं मनोरंजन उद्योग के विकास को मापने वाले हरेक ढांचे पर अपनी पसंद से आंकड़े चुनने और खुद को संबंधित वर्ग में बाजार का अगुआ दिखाने की प्रवृत्ति देखी जाती रही है। हालत यह हो गई है कि उद्योग के विकास को मापने के लिए तैयार किए जाने वाले आंकड़े मजबूती हासिल करने के बजाय इस राजनीति के चलते कमजोर पड़ते जा रहे हैं।
वैसे डिजिटल मीडिया में अभी तक कोई तटस्थ सर्वेक्षक नहीं सामने आया है जिसे सभी पक्ष स्वीकार करते हों। टेलीविजन उद्योग को रेटिंग अंकों को लेकर लड़ाई करने के बजाय एक भरोसेमंद मापन प्रणाली स्वीकार करने में दशक से अधिक वक्त लग गया। टेलीविजन उद्योग के काफी हद तक पेशेवर तरीके से संचालित होने और नियामकीय ढांचे के गठन दोनों ने ही इस दिशा में मदद की। भारत का 303.30 अरब रुपये का प्रिंट उद्योग कहीं अधिक पुराना है और अधिकांश प्रकाशनों का जिम्मा इनके मालिक-प्रबंधकों के पास है। ऐसे में पाठक संख्या में थोड़ा भी फेरबदल होने पर इन अखबार मालिकों के आत्मसम्मान को ठेस लग जाती है। यही वजह है कि चार वर्षों से पाठक संख्या पर कोई भी आंकड़ा नहीं आ पाया है।
इसकी वजह यह है कि रीडरशिप आंकड़े का इस्तेमाल उस मुद्रा की तरह किया जाता है जिसके बलबूते अखबार अपने यहां प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की दरें तय करते हैं। वर्ष 2012 में आईआरएस की मापन पद्धति में आमूलचूल बदलाव करते हुए उसे नई तकनीक के मुताबिक ढालने एवं व्यापक दायरा देने की कोशिश की गई थी। वर्ष 2014 की शुरुआत में आए आंकड़ों ने सभी पक्षों को दहला दिया था क्योंकि उसमें ढेरों गलतियां थीं और आंकड़ों के चयन में भी छेड़छाड़ के आरोप लगे। उन आंकड़ों की विधिवत समीक्षा के बाद अगस्त 2014 में संशोधित नतीजे जारी किए गए लेकिन प्रकाशकों ने उसे भी मानने से मना कर दिया। चर्चा यह थी कि हिंदी एवं अंग्रेजी के कई अखबार अपनी पाठक संख्या की वृद्धि दर में आई गिरावट से खासे भयभीत थे। उसके बाद से आईआरएस को मौजूदा मुकाम तक पहुंचने में तीन साल और लग गए। प्रसार अंकेक्षण ब्यूरो के सदस्य आई वेंकट कहते हैं, 'जब हमने इस पर काम शुरू किया तो प्रकाशकों की काफी भागीदारी बढ़ाने के लिए हमने उन्हें अपने साथ जोडऩे के लिए काफी मेहनत की।' नियंत्रण एवं संतुलन के नए तरीके भी अपनाए गए ताकि इस बार रीडरशिप सर्वे के आंकड़े बेदाग बनाए जा सके। इसके लिए 3.2 लाख नमूने का व्यापक आधार भी तैयार किया गया। वैसे मापन-पद्धति अब भी 2014 वाली ही है। आंकड़ों में कटौती और मीडिया के साथ साझा की गई जानकारी में हुए बदलाव पर्दे के पीछे के घटनाक्रम को बखूबी बयां करते हैं। मसलन, इस बार पिछले एक महीने की समग्र पाठक संख्या पर अधिक जोर दिया गया है जो पहले विज्ञापनदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले तरीके एआईआर का तीन-चार गुना होता है। टोटल रीडरशिप के हिसाब से देखें तो इस समय 38.5 करोड़ से अधिक भारतीय रोजाना एक अखबार पढ़ते हैं जबकि 2014 में यह आंकड़ा 27.6 करोड़ था। इस तरह चार साल में ही कुल पाठक संख्या में 10.9 करोड़ यानी 40 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
हालांकि एआईआर के पैमाने से देखें तो 2014 की तुलना में 0.6 फीसदी की ही वृद्धि के साथ यह 17.3 करोड़ पाठक रहा है। दूसरे नजरिये से देखें तो टाइम्स ऑफ इंडिया के कुल पाठक 1.3 करोड़ हैं लेकिन एआईआर के मुताबिक इन पाठकों की संख्या 47.6 लाख ही है। विश्लेषकों का कहना है कि एआईआर के हिसाब से अंग्रेजी अखबारों के प्रदर्शन में गिरावट रही है, वहीं हिंदी एवं अन्य भाषाओं में भी सुस्ती देखी जा रही है। यहां पर हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारत में प्रिंट व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है और मुनाफा भी कमा रहा है।
इसके अलावा भी कुछ बदलाव किए गए। मुख्य अखबार और उसके सहयोगी संस्करणों के लिए अलग पैमाने अपनाए गए और तीन दिन एवं सात दिनों के भी आधार पर पाठक संख्या को परखा गया। इसने अखबार खरीदने वालों को पाठक संख्या के प्रति चार दृष्टिकोण रखने का मौका दिया। आईआरएस आंकड़ों के सामने आए हुए दो हफ्ते से भी अधिक समय हो चुका है लेकिन अभी तक प्रकाशकों की तरफ से इसके विरोध में खास आवाज नहीं आई है और न ही अदालत में चुनौती देने की बात कही गई है। प्रिंट मीडिया को सही मापन पद्धति न होने के साथ ही नोटबंदी की भी तगड़ी मार झेलनी पड़ी थी। उनमें से कई प्रकाशकों ने मापन पद्धति को दुरुस्त करने में सक्रिय भूमिका निभाई है ताकि भारत में अखबारों के पाठन एवं प्रकाशन की सही तस्वीर पेश की जा सके। इस बार लग रहा है कि आईआरएस अपने मकसद में कामयाब रहा है। हालांकि पाठक संख्या के मापन के लिए किए गए बदलावों के कारगर होने को लेकर बहस हो सकती है।
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