रूहानी की वापसी | संपादकीय / May 22, 2017 | | | | |
तुलनात्मक रूप से उदार माने जाने वाले हसन रूहानी की ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में हुई शानदार जीत ने अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की सऊदी अरब और अन्य पश्चिम एशियाई देशों के नेताओं के साथ हुई मुलाकात को लेकर एक अजीब तरह का विरोधाभास पैदा किया है। दरअसल सऊदी अरब के अधिकांश सहयोगी देशों में अडिय़ल तानाशाही शासन व्यवस्था है। ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी रूहानी और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच वर्ष 2015 में हुए ऐतिहासिक परमाणु करार के कटु आलोचक रहे हैं। उस समझौते ने ईरान पर दशकों से लगी अमेरिकी आर्थिक पाबंदियों को खत्म कर दिया था और उसके एवज में ईरान भी अपने यूरेनियम संवद्र्धन कार्यक्रम को बंद करने के लिए राजी हो गया था। रिकॉर्ड 70 फीसदी से अधिक मतदान वाले इस चुनाव में रूहानी को 57 फीसदी मतदाताओं का समर्थन मिला है। इस परिणाम ने वैश्विक समुदाय के साथ ईरान के ताल्लुकात बहाल करने की दिशा में रूहानी को मिली कामयाबियों पर भी मुहर लगा दी है। खास तौर पर ईरान के युवाओं और मध्य वर्ग का जिस तरह से उन्हें साथ मिला, उसकी वजह से रूहानी के कट्टïरपंथी माने जाने वाले मुख्य प्रतिद्वंद्वी इब्राहिम रईसी 38.5 फीसदी मतों के साथ पीछे रह गए।
ईरान की अवाम ने रूहानी को दूसरा कार्यकाल देकर उन्हें परमाणु समझौते के जरिये परवान चढऩे वाली उम्मीदों पर खरा उतरने का मौका भी दिया है। मिस्र के बाद पश्चिम एशिया में सर्वाधिक आबादी ( 7.8 करोड़) वाले देश ईरान में रोजगार अवसरों में तेजी लानी होगी। हालांकि रूहानी के कार्यकाल में आर्थिक प्रगति बढ़ी है। वर्ष 2015 में अर्थव्यवस्था 2 फीसदी की दर से बढ़ी थी लेकिन 2016 में यह 6.4 फीसदी के स्तर तक पहुंच गई। इसके बावजूद बेरोजगारी दर 12.7 फीसदी के उच्च स्तर पर है। खास तौर पर ईरान की कुल आबादी में 40 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले युवाओं के बीच बेरोजगारी की दर तो 30 फीसदी है। सार्वभौम नकद हस्तांतरण कार्यक्रम गरीबी को कम करने में रूहानी को मिली कामयाबी का प्रमुख कारण रहा है। वर्ष 2016-21 के लिए घोषित विकास योजना के तहत इस कार्यक्रम की जगह सब्सिडी में कटौती की कवायद शुरू की गई है। इसके साथ ही बेहतर आर्थिक स्थिति वाले घरों को नकदी हस्तांतरण पर भी रोक लगा दी गई।
तेल कीमतों के नरम रुख को देखते हुए रूहानी के लिए बड़ी चुनौती वैश्विक निवेश आकर्षित करने की होगी। शिया मतावलंबी ईरान की रूस के साथ निकटता और पश्चिम एशिया के विभिन्न विवादों में उसकी संलिप्तता होने से अमेरिका के परंपरागत सहयोगी माने जाने वाले सऊदी अरब और अन्य पश्चिम एशियाई देशों का सुन्नी मतावलंबी होना तस्वीर को जटिल बना देता है। वैसे कट्टïरपंथी विचार वाले सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खमेनी के आने वाले दिनों में हटने की घोषणा से उन्हें थोड़ी राहत मिल सकती है।
लेकिन रूहानी की सबसे बड़ी परीक्षा अमेरिका के साथ रिश्तों को साधने में होगी। ट्रंप ने हाल ही में सऊदी अरब के साथ हथियार खरीद के बड़े सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। पिछले सप्ताह ट्रंप प्रशासन ने 2015 के समझौते की शर्तों के अनुरूप पाबंदियां हटाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है लेकिन कांग्रेस की तरफ से लगाए गए प्रतिबंध हटाए जाने अभी बाकी हैं। इन पाबंदियों के चलते अंतरराष्ट्रीय बैंक और उद्यम ईरान में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।
इस परिदृश्य में भारत के लिए भी इस देश के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने का मौका है। भारत को दुनिया में तेल के दूसरे बड़े भंडार वाले देश ईरान के साथ तेल खरीद में एक स्वतंत्र भुगतान प्रणाली विकसित करने पर ध्यान देना होगा। चाबहार बंदरगाह पर चल रहे कार्य में तेजी लाना एक अच्छी शुरुआत होगी। चीन 'वन बेल्ट वन रोड' को लेकर आक्रामक तरीके से आगे बढ़ रहा है उसमें भारत को अपने भू-राजनीतिक लक्ष्यों का ख्याल रखना होगा।
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