यूपी में भारी जीत के बाद भी सुधारों के रफ्तार पकडऩे पर संदेह | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / March 15, 2017 | | | | |
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की भारी जीत के बाद नरेंद्र मोदी सरकार से लगी उम्मीदें आसमान छूने लगी हैं। उद्योग जगत को उम्मीद है कि आर्थिक सुधारों की रफ्तार में तेजी देखने को मिलेगी। बाजार के विशेषज्ञों को आशा है कि सूचकांक लगातार नई ऊंचाइयों तक पहुंचेंगे। आर्थिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि केंद्र सरकार जल्द ही श्रम सुधारों को भी अमलीजामा पहनाने की कोशिश करेगी। आर्थिक रूप से अक्षम हो चुके सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की दिशा में भी सरकार के आगे बढऩे की उम्मीद बढ़ी है। कर्ज में फंसी ढांचागत कंपनियों की दोहरी बहीखाता समस्या निपटाने और बैंकों की बढ़ती गैर-निष्पादित आस्तियों के समाधान के लिए भी सरकार ठोस कदम उठा सकती है। विश्लेषकों के मुताबिक सरकार अब भूमि अधिग्रहण कानून की खामियों को दूर करने की भी पहल कर सकती है। विश्लेषकों का कहना है कि सरकार पहले ही दिवालिया कानून पारित कर चुकी है और 1 जुलाई से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का भी क्रियान्वयन होने वाला है। ऐसे में अगर ये सभी सुधार लागू हो जाते हैं तो भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की लंबी राह पर अग्रसर हो सकती है।
इन सभी अपेक्षाओं को आसानी से समझा जा सकता है और उन्हें पूरा भी किया जा सकता है। लेकिन उन्हें यथार्थ के धरातल पर परखने में कोई हर्ज नहीं है। इससे हमें यह अंदाजा लगाने में मदद मिलेगी कि क्या ये सारे आकलन केवल आशावादी नजरिये की उपज हैं या फिर उद्योग और कारोबार जगत की मुश्किलों या नए सुधारों के बारे में केंद्र सरकार के रवैये से जुड़ा सही आकलन भी किया गया है?
अगर आर्थिक नीति-निर्माण के संदर्भ में मोदी सरकार के अब तक के रवैये को कोई संकेत माना जाए तो विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद आर्थिक सुधारों में तेजी आने की उम्मीद काफी बेमानी लगती है। इसकी वजह यह है कि बड़े कारोबारी सुधारों के मामले में भाजपा सरकार का रुख काफी रक्षात्मक और चौकस रहा है। ऐसा लगता है कि अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की मंजूरी जैसे मसलों पर जिस तरह का विरोध झेलना पड़ा था, उसी से वह इतनी सावधानी बरत रही है।
मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में जो संशोधन प्रस्ताव रखे थे उन्हें विपक्षी दलों ने पूरी तरह से कारोबार जगत के अनुकूल और गरीबों का विरोधी करार दिया था। राज्यसभा में अपेक्षित बहुमत नहीं होने से भी भाजपा सरकार को अपनी पसंद का कानून पारित करा पाना मुश्किल था। इसका नतीजा यह हुआ कि सरकार अपनी राजनीतिक पूंजी सुधारों पर लगाने से खुद को दूर करने लगी। दरअसल सरकार को यह डर सताने लगा था कि विपक्ष उसे बड़े कारोबारी घरानों के प्रति दोस्ताना रवैया रखने वाला साबित न करने लगे। ऐसे में सरकार ने किसी भी नीतिगत बदलाव की दिशा में कदम राजनीतिक आम-सहमति बनाने के बाद ही उठाया। जीएसटी कानून तैयार करते समय विपक्षी दलों के तमाम सुझावों और बदलावों को भी सरकार मानने के लिए मजबूर हुई। इसके अलावा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की मंजूरी भी अलग-अलग चरणों में दी जा रही है।
सुधारों की रफ्तार धीमी होने के साथ ही सरकार ने अपनी नीतियों को ग्रामीण भारत और गरीबों पर केंद्रित कर लिया है। केंद्र सरकार के पिछले दो बजट इसकी गवाही देते हैं। हां, सरकार ने उद्योग जगत के लिए भी कई कदम उठाए हैं लेकिन सरकार का ध्यान मुख्य रूप से ग्रामीण भारत और गरीब ही रहे हैं। बड़े उद्योगों के लिए करों को सुसंगत बनाने के बजाय सरकार ने गांवों में शौचालय बनवाने और गरीब महिलाओं को मुफ्त गैस सिलिंडर देने पर अधिक ध्यान दिया है।
कुछ लोग नोटबंदी को व्यापक नीतिगत बदलाव वाला कदम मान सकते हैं लेकिन सरकार ने उसे भी इस तरह पेश किया कि वह काला धन रखने वाले धनी लोगों को दंडित करने और गरीबों की मदद के लिए उठाया गया फैसला ही लगे। नकदी के असर को कम कर अधिक लोगों को डिजिटल लेनदेन के दायरे में लाने के लिए भी इसे जरूरी बताया गया। भाजपा नेताओं ने चुनाव के दौरान नोटबंदी को समृद्ध लोगों के खिलाफ उठाया गया कदम बताकर जायज ठहराने की कोशिश की थी। साथ ही राज्य के सभी किसानों का कर्ज माफ करने और भविष्य में शून्य ब्याज दर पर कर्ज दिए जाने का वादा भी किया।
मोदी सरकार के इस रुख की एक व्याख्या तो यह हो सकती है कि सरकार उद्योग जगत को लाभान्वित करने वाले आर्थिक सुधार करने के साथ ही ग्रामीण भारत और गरीबों के लिए योजनाएं चलाने में भी भरोसा करती है। राजनीतिक नजरिये से इसकी अहमियत को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में प्रचंड जीत के बाद अचानक ही सरकार के आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढऩे को लेकर उम्मीद लगाने के पीछे कोई ठोस कारण नहीं नजर आता है। आखिर ऐसा क्या हुआ है कि सरकार सुधारों के बारे में अपने पिछले रवैये को बदल देगी? राज्यसभा में उसकी ताकत भी अभी नहीं, अगले साल के मध्य में जाकर बढ़ेगी। ऐसे में सरकार भला अभी भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन लेकर क्यों आएगी? या फिर यह एयर इंडिया का निजीकरण क्यों करेगी? या इस सरकार को फंसे हुए कर्ज से हलकान बैंकों की मदद के लिए क्यों आगे आना चाहिए?
एक तर्क तो यह है कि ये कदम निवेश को पुनर्जीवित करने और विकास बढ़ाने के लिए जरूरी होंगे। सरकार अगर अभी ऐसे खतरे नहीं मोल ले सकती है तो कब करेगी? इस पूरी बहस का संक्षिप्त उत्तर यह है कि सरकार उत्तर प्रदेश में भारी जीत दर्ज करने के बाद 2019 में होने वाले अगले लोकसभा चुनावों तक इसी रफ्तार से चलेगी और चुनाव के ऐन पहले एक बार फिर गरीब-समर्थक योजनाएं लेकर आएगी। इसका मतलब है कि सुधारों पर कोई लगाम नहीं लगने वाली है लेकिन उनमें कोई तेजी भी नहीं दिखेगी।
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