राजकोषीय घाटे का संक्षिप्त इतिहास | शंकर आचार्य / March 12, 2017 | | | | |
राजकोषीय घाटे में सुधार की हमारी कोशिशें बीच-बीच में अलग-अलग वजहों से धीमी पड़ जाती हैं। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं शंकर आचार्य
करीब तीन दशक पहले की बात करें तो देश में बहुत कम लोगों ने राजकोषीय घाटे का नाम सुना होगा। यह शब्द आधिकारिक तौर पर पहली बार सन 1989-90 की आर्थिक समीक्षा में इस्तेमाल किया गया था। समीक्षा में इससे सरकारी व्यय के आधिक्य और मौजूदा राजस्व पर शुद्घ ऋण के रूप में परिभाषित किया गया था। इसे सरकार द्वारा लिए जाने वाले शुद्घ ऋण के रूप में भी समझा जा सकता है। एक या दो साल के भीतर यह शब्द सरकारी दस्तावेजों, मीडिया और राजनीतिक बहस आदि में हर तरफ नजर आने लगा। सन 1991 के संकट के बाद स्थिरीकरण की प्रक्रिया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कार्यक्रमों के बीच इसकी चर्चा और भी अधिक होने लगी। निश्चित तौर पर हमारी सरकार ने उस वक्त इसे गंभीरता से नहीं लिया।
बीते 35 वर्ष के दौरान देश में राजकोषीय घाटे के दायरे की समीक्षा करना काफी जानकारीपरक साबित हो सकता है। यह वही अवधि है जब मेरा जुड़ाव देश के सार्वजनिक ऋण क्षेत्र से रहा है। ऐसा करने की एक अहम वजह यह है कि वृहद आर्थिक नीति के मसलों और उसके प्रदर्शन के मामले में इन घाटों की काफी अहमियत है। अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता अक्सर इस बात पर सहमत नजर आते हैं कि बड़ा और निरंतर बरकरार बजट घाटा बेहतर वृहद आर्थिक प्रदर्शन के लिए ठीक नहीं। ऐसे घाटों की वजह से निजी निवेश बाहर जाता है, मुद्रास्फीति का दबाव बनता है, भुगतान संतुलन कमजोर पड़ता है, वित्तीय क्षेत्र के सुधार करना मुश्किल होता जाता है और आने वाली पीढिय़ों पर कर्ज का बोझ बढ़ता है।
बीते 35 सालों में देश में केंद्र और राज्यों का मिलाजुला राजकोषीय घाटा औसतन सकल घरेलू उत्पाद का 7.7 फीसदी रहा है। केवल वर्ष 2007-08 के दौरान यह पांच फीसदी से नीचे आया था। दुनिया का कोई भी अन्य देश हमारे इस शिथिल आंकड़े के आसपास नहीं है। वर्ष 2015 में जब हमारा घाटा जीडीपी के 7.5 फीसदी था जब यूरो क्षेत्र का घाटा औसतन 2 फीसदी था। विकसित जी-20 देशों में यह 3 फीसदी और उभरते जी-20 देशों में यह 4.4 फीसदी था। यह आंकड़ा भी इसलिए इतना ज्यादा था क्योंकि तेल कीमतों में 16 फीसदी का तेज इजाफा हुआ। ऐसे में यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि इतनी ढीलीढाली राजकोषीय नीति के बावजूद हम बीते 35 सालों के दौरान औसतन 6 फीसदी की विकास दर हासिल करने में सफल रहे। लेकिन इससे पहले कि हम इस गलत नतीजे पर पहुंचें कि बढ़े हुए घाटे ने हमारी अर्थव्यवस्था की मदद की है, जरा राजकोषीय नीति के इतिहास पर एक करीबी नजर डाल लें।
आंकड़ों के मुताबिक मिश्रित घाटा वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में जीडीपी के 6 फीसदी से बढ़कर दशक के मध्य तक 8 फीसदी और सन 1990-91 तक 8-9 फीसदी के स्तर पर आ गया। राजकोषीय असंतुलन बढ़ा। केंद्र सरकार को अक्सर सन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के लिए प्रमुख तौर पर जिम्मेदार माना जाता है। विजय जोशी और इयान लिटिल इंडिया: माइक्रोइकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल इकनॉमी में कहते हैं कि उक्त संकट के लिए पिछले वर्षों की ढीली राजकोषीय नीति उत्तरदायी थी।
ऐसे ही संकट ने केंद्र सरकार को राजकोषीय समावेशन की शुरुआत करेन के लिए प्रेरित किया और मिश्रित घाटे को सन 1990-91 के 9 फीसदी से अधिक के स्तर से घटाकर वर्ष 1996-97 में 6 फीसदी तक करने में सफलता मिली। हां राज्यों का घाटा पहले की तरह जीडीपी के 2-3 फीसदी के दायरे में रहा। अगर इस कमी को सन 1990 के दशक के व्यापक आर्थिक सुधारों से जोड़कर देखा जाए तो कहा जा सकता है कि संकट के वर्ष यानी 1991-92 में जहां वृद्घि दर एक फीसदी थी वहीं वर्ष 1996-97 तक औसत वृद्घि दर 8 फीसदी तक जा पहुंची। इसके लिए बीच के पांच वर्ष में हासिल 6.6 फीसदी की वृद्घि दर जिम्मेदार रही।
देश के राजकोषीय घाटों के रुझान की बात करें तो वे कमोबेश ऐसे हैं मानो कोई नशे का आदी व्यक्ति सुधार की नाकाम कोशिश कर रहा हो। वह बहुत लंबे समय तक सफल नहीं हो पाता। वर्ष 1996-97 के बाद के पांच सालों में संयुक्त राजकोषीय घाटा दोबारा 9.6 फीसदी के स्तर तक फिसल गया। इसके लिए मोटे तौर पर सरकारी भुगतान और पेंशन जिम्मेदार थे जिनमें पांचवे वेतन आयोग के आने के बाद इजाफा हुआ। चूंकि राज्यों को भी अपने वेतन और पेंशन में उदारतापूर्वक संशोधन करना पड़ा इसलिए घाटा केंद्र और राज्य दोनों ही स्तरों पर काफी बढ़ा। इसके साथ ही वास्तविक ब्याज दरें भी काफी ऊंची रहीं। सन 1997-2003 के बीच उच्च आर्थिक वृद्घि धीमी होकर 5.4 फीसदी पर आ गई। इसके लिए कमजोर मॉनसून और एशियाई वित्तीय संकट समेत अन्य कारक भी रहे।
वर्ष 2002-03 से लेकर अगले पांच साल में इसमें भरी कमी देखी गई और यह 9.3 फीसदी से घटकर 4.7 फीसदी पर आ गया। इस दौरान राज्य और केंद्र दोनों ही स्तरों पर सकारात्मक कारक काम कर रहे थे। संसद ने राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन कानून को 2003 में पारित कर दिया था और सन 2004 में इसकी अधिसूचना भी जारी कर दी गई थी। वर्ष 2004 में 12वें वित्त आयोग की अनुशंसा के बाद ऋण राहत को राज्यों से जोड़ दिया गया, लगभग सभी राज्यों ने यही किया। राज्यों के बिक्री कर को राज्य मूल्यवर्धित कर में तब्दील कर दिया गया और केंद्र के सेवा कर दायरे का भी समुचित विस्तार हुआ। राजकोषीय घाटा कम होने से ब्याज दर कम होती गई। इससे निवेश और वृद्घि को बल मिला। इसका असर राजस्व पर पड़ा और घाटा आगे चलकर और कम हो गया। आर्थिक वृद्घि 2003-08 के दौर में 8.7 फीसदी के उच्च स्तर पर रही।
लेकिन वर्ष 2008-09 में केंद्र सरकार ने आम चुनाव से पहले जो लोकलुभावन घोषणाएं कीं उनका असर इस वित्तीय समावेशन पर पड़ा। इस दौरान भत्तों और सब्सिडी पर जमकर खर्च किया गया। इससे हुआ यह कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम का घाटे को 2.5 फीसदी के दायरे में रखने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। परिणामस्वरूप जीडीपी की तुलना में घाटा 35 साल के उच्चतम स्तर पर जा पहुंचा। इस भारी राजकोषीय प्रोत्साहन ने कुछ साल तक वृद्घि को गति दी। लेकिन इसकी कीमत दो अंकों की खुदरा महंगाई और भुगतान संतुलन के घाटे के रूप में चुकानी पड़ी। बीते सात वर्ष के दौरान राजकोषीय मोर्चे पर सुधार देखने को मिला है। केंद्र सरकार के प्रयासों को जरूर राज्यों की वजह से थोड़ी शिथिलता का सामना करना पड़ा। सुधारों का संघर्ष जारी है। परंतु अभी हमें बहुत लंबी दूरी तय करनी है।
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